‘‘तुम कौन हो?’’ – इस प्रश्न के विभिन्न उत्तर सुनने को मिलते हैं जैसे – ‘मैं हिन्दू हूँ’, ‘मैं ईसाई हूँ’, ‘मैं मुसलमान हूँ’, ‘मैं इंजीनियर हूँ’, ‘मैं डॉक्टर हूँ’…। इन सबमें जो सामान्य है वो है ‘मैं’ जिसका अपना कोई नाम, रूप नहीं है। यह वही परम तत्त्व है जिसे आत्मा, ब्रह्म अथवा परमात्मा के नामों से जाना जाता है।

यदि हम कहें कि, ‘परमात्मा नहीं है’ तो यह वैसा ही है जैसे जिह्वा कहे कि, ‘जिव्हा नाम की कोई वस्तु ही नहीं’। ‘मैं’ ही कहता हूँ कि ‘मैं नहीं हूँ’। हम सबके भीतर परमात्मा का निवास है। जड़-चेतन, हर प्राणी के भीतर जो धड़क रहा है वही आत्मा है। परमात्मा की निकटतम उपमा है आकाश, जोकि सर्वव्यापी है। सकल ब्रह्माण्ड का अधिष्ठान आकाश है। घर बनने के पूर्व आकाश विद्यमान रहता है, घर पूरा बन जाने के बाद भी आकाश रहता है तथा घर उसी आकाश में स्थित है जो पहले था। घर को ध्वस्त कर के यदि सब मलबा इत्यादि हटा दिया जाए तो भी आकाश ज्यों का त्यों बना रहता है। ठीक उसी प्रकार, यह परम तत्त्व भी नित्य-वस्तु है – भूत में था, वर्तमान में है तथा भविष्य में रहेगा और यही परिवर्तन-रहित नित्य तत्त्व परमात्मा है।

एक बच्चे ने अम्मा से पूछा कि, ‘‘अम्मा, यदि परमात्मा सर्वव्यापी है तो हम उसे देख क्यों नहीं पाते?’’ तो, क्या हम बिजली को देख सकते हैं? नहीं, किन्तु यदि हम किसी नंगे तार को छू लें तो हमें धक्का लगेगा और बिजली का अनुभव हो जायेगा। इसी प्रकार परमात्म तत्त्व भी अनुभवगम्य है। हम कभी वृक्ष के पीछे खड़े हों तो संभवत: हमें सूर्य के दर्शन न हों और हम कह उठें कि, ‘सूर्य को वृक्ष ने ढ़क दिया है’, परन्तु यह सत्य तो नहीं है ना? वस्तुत:, वृक्ष ने हमारी दृष्टि को किंचित ढ़का है। इसी प्रकार हमारा अज्ञान ही हमें परमात्मा के स्पष्ट-दर्शन से वंचित किये हुए है। परमात्मा हमारे भीतर प्राण के रूप में, आत्मा हो कर के रह रहा है जिसका स्वरूप ही आनन्द है। यद्यपि परमात्मा सर्वव्यापी है तथापि हमारे मन का ‘मैं’ और ‘मेरा’ भाव के साथ तादात्म्य हमारे सत्य-दर्शन में बाधक बने हुए है। मन ही हमारे बंधन तथा मोक्ष का कारण है। मेरे बच्चों को अपने मन को नित्य-परिवर्तनशील विचारों तथा भावनाओं से एवं बाह्य वस्तुओं के दासत्व से मुक्त करने की कला आनी चाहिए। ‘मैं’ तथा ‘मेरा’ का भाव ही हमें बंधन की जंजीरों में बाँधे रखता है।

बाह्य जगत् से हमें पूर्णत्व का अनुभव कभी न प्राप्त हो सकेगा। परन्तु आज हम बाह्य जगत् में ही आनन्द तथा पूर्णत्व की खोज कर रहे हैं। कितनी ही महिलायें आ कर मुझसे कहती हैं कि, ‘‘अम्मा, मैं चालीस वर्ष की हो गई हूँ परन्तु अभी तक अविवाहिता हूँ, अभी तक मुझे योग्य पति की तलाश है।’’ इसी प्रकार कितने ही पुरुष आ कर कहते हैं कि, ‘‘जीवन तो जैसे-तैसे चल रहा है परन्तु योग्य पत्नी को मैं आज भी खोज रहा हूँ।’’ इस प्रकार उनके जीवन में निराशा एवं दु:ख भर जाते हैं।

ऐसी शिकायतें सुन कर अम्मा को ऐसे व्यक्ति का स्मरण हो आता है जो वधू की खोज में विश्व भर में भ्रमण करता है। उसकी भेंट स्पेन की एक लड़की से होती है जो अति सुन्दर तथा मेधावी थी किन्तु जगत् के व्यवहार में उसकी कोई रुचि नहीं थी। फिर एक लड़की कोरिया में मिली जिसमें रूपवती, मेधावी होने के साथ-साथ जगत् की सूझ-बूझ भी थी। परन्तु उसके सामने प्रस्ताव रखने में वह स्वयं संकोच कर गया। अंतत: एक अन्य देश में उसे एक लड़की मिलती है जिसमें वे सब गुण थे जो वह चाहता था।

अम्मा ने पूछा, ‘‘तो क्या तुम अपने सपनों की उस रानी से विवाह कर पाए?’’
उस व्यक्ति ने किंचित दु:ख भरे स्वर में कहा, ‘‘नहीं।’’
अम्मा ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ?’’
उसका उत्तर था, ‘‘वास्तव में, वह अपने सपनों के राजा की राह देख रही थी।’’

बच्चो, जब हम पूर्णता को बाहर पाना चाहते हैं तो निराशा हाथ लगना अवश्यम्भावी है। हम मनुष्य आखिर क्या ढूँढ रहे हैं? क्या शान्ति व आनन्द नहीं? थोड़ी सी शान्ति के लिए मनुष्य कहाँ-कहाँ भटकता फिरता है परन्तु इस सारी भाग-दौड़ में हम अपने भीतरी जगत् को नरक बना लेते हैं। यदि बाह्य विषय-भोग की वस्तुओं द्वारा नित्य आनन्द एवं शान्ति की प्राप्ति सम्भव होती तो क्या अब तक हो न गई होती? केवल घरों तथा कारों का वातानुकूलित होना पर्याप्त नहीं है – मेरे बच्चों को अपने अंत:करण को वातानुकूलित करने की कला आनी चाहिए।

मेरे बच्चो, शान्ति, संतोष तथा आनन्द हमारे अपने मन पर निर्भर हैं न कि बाह्य वस्तुओं तथा स्थितियों पर। मन का संयम आनन्द की आधारशिला है। सदा स्मरण रहे कि स्वर्ग व नरक मन की ही कल्पना-मात्र हैं।