इस दुनियां में प्रत्येक व्यक्ति कम से कम एक रात निर्भय होकर सो सके।
प्रत्येक व्यक्ति को कम से कम एक दिन भरपेट भोजन मिले।
कम से कम एक दिन ऐसा हो जब हिंसा का शिकार होकर कोई भी अस्पताल में भर्ती ना हो।
कम से कम एक दिन सब लोग निष्काम सेवा करके गरीबों व जरूरतमंदों की सहायता करें।
अम्मा की यह प्रार्थना है कि उनका कम से कम यह छोटा सा स्वप्न साकार हो।

श्री माता अमृतानन्दमयी देवी(अम्मा), सारे विश्व में अपने निःस्वार्थ प्रेम और करुणा के लिये जानी जाती हैं। उन्होंने अपना जीवन गरीबों तथा पीड़ितों की सेवा व जन साधारण के आध्यात्मिक उद्धार के लिये समर्पित कर दिया है। अपने निःस्वार्थ प्रेमपूर्ण आश्लेष से, गहन आध्यात्मिक सारसिक्त वचनों से तथा संसार में व्याप्त अपनी सेवा संस्थाओं के माध्यम से अम्मा मानव का उत्थान कर रही हैं, उन्हें प्रेरणा दे रही हैं और समाज में सकारात्मक परिवर्तन ला रही हैं।

अम्मा का जीवन-चरित्र

२७ सितंबर, १९५३ के दिन प्रातः काल की बेला। केरल के पश्चिमी समुद्र तट पर स्थित आलप्पाड ग्राम में एक बच्ची का जन्म हुआ।  उसके माता-पिता ने उसका नाम ‘सुधामणि’ रखा। प्रायः जन्म के समय बच्चे रोते हैं, परंतु सुधामणि के चेहरे पर, जन्म के समय, मंद मुस्कान की रश्मियां फैली हुई थी – मानो सूचना दे रही थी कि भविष्य में वह बच्ची संसार के लिए आनंद एवं शांति का स्रोत बनेगी। पांच वर्ष की अवस्था तक पहुंचने के पूर्व ही सुधामणि भगवान कृष्ण के भक्तिपूर्ण भजनों की रचना करने लगी थी। ये गीत प्रगाढ़ भक्ति और गहन आध्यात्मिक तत्त्व से परिपूर्ण होते।

जब सुधामणि नौ वर्ष की हुई तो उसकी मां ने बिस्तर पकड़ लिया और घर के सारे कामकाज का बोझ सुधामणि के नन्हें कन्धों पर आ पड़ा। इस कारण उसे स्कूल भी छोड़ना पड़ा। दिन भर बिना कोई शिकायत किए, सुधामणि इस भावना के साथ काम करती रहती कि सब काम प्रभु की सेवा है और तदनन्तर उन्हें प्रसन्न मन से प्रभु को अर्पण कर देती। उसके परम प्रिय श्री कृष्ण का सतत स्मरण ही उसका एकमात्र सहारा था। अर्धरात्रि के समय, जब घर के सब कार्यकलाप समाप्त होते तो सोने के बजाए सुधामणि बची हुई रात्रि के समय को ध्यान, कीर्तन एवं प्रार्थना में व्यतीत करती। इस छोटी उम्र में ही दूसरों के प्रति प्रेम एवं करुणा की भावना सुधामणि में स्पष्ट व्यक्त होने लगी थी।

सुधामणि प्रायः पड़ोस के घरों में घर की गायों के लिए माड और तरकारी बटोरने जाया करती। वहां वह मुख्यतः वयोवृद्ध व्यक्तियों से उनकी व्यथा की कहानियां बड़े ध्यान से सुनती। प्रायः वे उसे बताते थे कि उनके बच्चे व पोते पोतियां उनकी कितनी अवहेलना करते हैं तथा उनके साथ कितना दुर्व्यवहार होता है। उनकी कहानियों से सुधामणि ने अंतरावलोकन किया तो पाया कि बाल्यावस्था में जो बच्चे अपने माता-पिता के स्वास्थ्य एवं दीर्घायु के लिए प्रार्थना किया करते हैं वही बड़े हो कर, माता पिता के बूढ़े एवं अशक्त होने पर उन्हें दुत्कारते व  कोसते हैं। वो जान गई थी कि सांसारिक प्रेम के मूल में सदैव स्वार्थ की भावना विद्यमान रहती है, ऐसा प्रेम अस्थिर एवं सीमित होता है। भले ही वो बच्ची थी, फिर भी अपने वयोवृद्ध पड़ोसियों के कष्टों को कम करने के लिए यथासंभव प्रयत्न करती। वो उनके कपड़े धोती, उन्हें नहलाती, उनके लिए अपने घर से भोजन एवं वस्त्र तक ले आती। अपने घर से चीज़ें ले जाकर उन्हें देने के अपने स्वभाव के कारण प्रायः सुधामणि बड़ी मुसीबत में पड़ जाती। फिर भी बड़ी से बड़ी सज़ा भी उसके भीतर की स्वाभाविक करुणा के प्रस्फुटन को रोक नहीं पाती।

सुधामणि जब किशोरावस्था को प्राप्त हुई तो प्रभु के प्रति उसका प्रेम अवर्णनीय हो गया। उसकी भावप्रवण मनोदशा उत्तरोत्तर बढ़ती गई। प्रभु प्रेम में उन्मत्त एवं संसार से पूर्णतया विरक्त आनंदमग्न होकर सुधामणि नृत्य एवं गायन किया करती। सुधामणि की दृष्टि में, संपूर्ण विश्व में केवल श्री कृष्ण ही व्याप्त थे। 

शीघ्र ही सुधामणि अपने प्रभु में लीन हो गई। तत्पश्चात अपने एवं कृष्ण में भेद करना, उसके लिए संभव ना रहा। एक दिन सुधामणि को देवी के मनोरम दर्शन प्राप्त हुए। इस अनुभव के पश्चात वह ईश्वरीय प्रेम की ऐसी गहरी अविरत उन्मत्त अवस्था में रहने लगी कि देवी मां के साथ एकत्व प्राप्त करने की तीव्र उत्कण्ठा से अभिभूत हो गई। अपने आस-पास की परिस्थितियों में बेखबर, प्रायः सुधामणि ध्यानमग्न पाई जाती। उसके परिवार के सदस्य एवं अनेक ग्रामीण लोग सुधामणि की इस उच्च मनोदशा को समझने में बिल्कुल असमर्थ थे और इसलिए वे उन्हें उत्पीड़ित करने लगे। अंत में घर छोड़ने तक की नौबत आ पड़ी। दिन व रातें खुले आकाश तले व्यतीत करने पड़े। अब आकाश उसकी छत बन गया, पृथ्वी बिछौना, चंद्रमा दीपक और समुद्री वायु पंखा। जब सुधामणि के अपने परिवार के लोगों ने एवं गांव वालों ने उसे त्याग दिया तब पशु पक्षियों ने उसका साथ दिया और वे उसके परम मित्र बन गए। वे सुधामणि की यथा संभव सेवा करते। प्रतिदिन जब सुधामणि ध्यान में होती तो एक गाय आकर प्रतीक्षा करती रहती और जब वो समाधि से बाहर आती तब उसे अपने थनों से दूध पिलाती। एक बछड़े की भांति सुधामणि भी सीधे थन से दूध पी जाती। जब तक सुधामणि उसका दूध पीकर तृप्त नहीं हो जाती, गाय ना तो घास चरती ना ही अपने बछड़े को दूध पिलाती। एक काला कुत्ता उनके साथी, सेवक एवं मित्र के रुप में साथ रहता। कई अवसरों पर जब वह गहरे ध्यान में लीन होती, एक बड़ा सर्प उसके ऊपर से सरकने लगता ताकि वह बाह्य चेतना में वापस आ सके।

जब वो भजन गाती तो कबूतर और तोते उनके समक्ष खड़े हो जाते, और अपने पंखों को फैलाकर, उनके गीत की लय के साथ उल्लसित होकर नाचते। अंत में सुधामणि ने अपनी साधना को अत्यधिक कठोर एवं उग्रतर कर दिया। देवी के प्रति प्रेम एवं उत्कण्ठा से उनका संपूर्ण अस्तित्व प्रज्वलित हो उठा। वह पृथ्वी को चूमती, पेड़ों से लिपट जाती। उन सभी में उन्हें देवी मां दिखाई पड़ती। शीतल समीर का स्पर्श उन्हें ऐसा प्रतीत होता मानो स्वयं देवी मां उन्हें दुलार रही हों और ऐसा प्रतीत होते ही वह रोने लगती। प्रायः वह समाधि में घंटों और कभी-कभी  दिनों तक डूबी रहती और उनमें बाह्य चेतना का कोई चिन्ह दिखाई न पड़ता। उनकी साधना की पूर्णता में उनका व्यक्तित्व जगदंबा में लीन हो गया। अपने एक भजन में अम्मा ने इस अनुभव को इस प्रकार दर्शाया है –

  “मुस्कुराती हुई देवी मां एक प्रकाश पुंज बन कर आईं और मुझ में समा गई…। मेरा मन खिल उठा और दिव्यता के बहुरंगी प्रकाश में स्नान करने लगा…। इसके पश्चात मुझे कुछ भी अपने से अलग दिखलाई नहीं पड़ा।” उन्हें ऐसा अनुभव हुआ – “संपूर्ण विश्व एक छोटे से बुलबुले के समान मेरे भीतर स्थित है।” उनके अंतर से सर्वव्यापक ‘ॐ’ की ध्वनि स्वतः फूट पड़ी। सुधामणि को अब अनुभव हुआ कि सभी रूप एकमेव आत्मा की अभिव्यक्ति हैं।

बचपन से ही वह अपने सहज स्वरूप से पूर्णतया अभिज्ञ थी परंतु चपल बाल-कृष्ण की भांति उन्होंने भी एक नटखट बच्ची जैसा अभिनय करना उचित समझा।

तत्त्वज्ञान में प्रतिष्ठित होने पर भी सुधामणि ने अपने बचपन एवं किशोरावस्था के वर्षों को गहन तप में लगाया ताकि वो संसार के लिए एक जीवंत दृष्टांत उपस्थित कर सके।

बाद में उनके मार्मिक भक्ति गीतों एवं उन गहन तपस्याओं पर प्रश्न पूछे जाते तो वो उत्तर में कहतीं,” क्या श्रीराम एवं श्रीकृष्ण स्वयं अवतार होते हुए भी शिष्यत्व के अनुभव से नहीं गुज़रे थे? क्या उन्होंने शिव एवं देवी की उपासना नहीं की थी?”

कोई भी व्यक्ति जिसने पूर्ण बोध के साथ जन्म लिया है, बचपन में ही यह उजागर नहीं कर देता कि,’ मैं ब्रह्म हूं,’ क्योंकि इसका अर्थ यो यह होगा कि दूसरा व्यक्ति ब्रह्म नहीं है। जब कोई ब्रह्मात्मैक्य-बोध को प्राप्त हो जायेगा तो वो किस से कहेगा और क्या कहेगा? वह स्थिति शब्दों एवं व्याख्या से परे है। यदि तुम किसी बहरे एवं गूंगे से कुछ कहना चाहते हो तो तुम उसे अपनी भाषा में नहीं बता सकते। उस तक अपनी बात पहुंचाने के लिए तुमको सांकेतिक भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा। परंतु चूंकि उसी तुम सांकेतिक भाषा का प्रयोग कर रहे हो इसका अर्थ यह नहीं है कि तुम स्वयं बहरे हो गए हो। उसी प्रकार एक अवतार को कठोर तपस्याओं से गुज़रना पड़ सकता है, या वे ध्यान-समाधि में प्रवृत्त दिख सकते हैं, परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि उनके लिए ऐसा करना आवश्यक है। वे ऐसा केवल संसार के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत करने के लिए करते हैं।

अम्मा का प्रथम ब्रह्मचारी दल उनके पास स्थाई रूप से रहने के लिए सन् २९७१ मैं आया। इन्हीं लोगों ने उन्हें ‘श्री माता अमृतानंदमयी देवी’ नाम दिया।

जैसे-जैसे अधिकाधिक लोग अम्मा के नि:स्वार्थ करुणा भाव से प्रभावित होकर, अम्मा के पास आध्यात्मिक मार्गदर्शन प्राप्ति हेतु आने लगे तो इस स्थान ने एक आश्रम का आकार ले लिया। इस प्रकार अम्मा के घर के पास कुछ घास-फूस की कुटियों के निर्माण से, माता अमृतानंदमयी मठ की आधारशिला रख दी गई।

१९८७ में, अपनी विश्व भर के बच्चों की पुकार के प्रत्युत्तर में अम्मा अपने प्रथम विश्व भ्रमण पर निकल पड़ी। आज अम्मा भारत तथा विदेश में भी, विश्व की सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक विभूति मानी जाती हैं। वर्ष का अधिकतर समय वो अपनी जन्मभूमि (भारत), यूरोप, अमेरिका, कैनेडा,जापान, मलेशिया तथा ऑस्ट्रेलिया आदि की यात्रा में व्यतीत करती है।

अम्मा की करुणा राष्ट्रीयता, समुदाय, जाति, वर्ग, सामाजिक – आर्थिक स्थिति अथवा धर्म के बंधनों को चीरती हुई आगे निकल गई है। अम्मा ने अब तक लगभग ३.५ करोड़ से अधिक लोगों को गले लगा कर आशीर्वाद दिया है।

आज अम्मा का आश्रम ३,००० से अधिक लोगों का स्थाई आवास है। दुनियां के कोने-कोने से हज़ारों लोग प्रतिदिन दर्शनार्थ आते हैं। अम्मा की करुणा व निस्स्वार्थ प्रेम से प्रेरित होकर आश्रमवासी तथा भक्त भी जग-सेवा में स्वयं को समर्पित करते हैं। अम्मा के लोकोपकारी प्रकल्पों के विशाल तंत्र के माध्यम से,वे ज़रूरतमंद लोगों को आवासीय तथा चिकित्सा राहत, शैक्षिक सहायता, व्यावसायिक प्रशिक्षण तथा आर्थिक सहायता पहुंचा कर उन्हें ऊंचा उठाने का प्रयास कर रहे हैं।

Being one with the other

दर्शन

अम्मा का दर्शन अपने आप में अनूठा है। अम्मा सभी दर्शानार्थियों को गले लगाती हैं, अपने कन्धों पर उनका सर रख कर उन्हें आश्वासन देती हैं। चाहे भीड़ हज़ारों की हो या लाखों की, अम्मा सभी को दर्शन देने के उपरांत ही पीठम से उठती हैं। सोचिए – हमारा प्रेम तो हमारे स्वजनों तक सीमित है। यह एक ऐसी महान विभूति है जो सभी पर – राजा हो या रंक – एक समान वात्सल्य की वर्षा करती है। इसीलिए सभी इन्हें ‘मां’ कहकर पुकारते हैं।

अम्मा स्वयं महात्मा होने का कोई दावा नहीं करतीं। वे कहती हैं – “मैं बहुत पहले से अपना जीवन संसार की सेवा में अर्पित कर चुकी हूँ। जब तुम्हारा जीवन ही अर्पित हो चुका तब फिर भला तुम कोई दावा कैसे कर सकते हो?”

जब लोगों ने अम्मा से भक्तों द्वारा उनकी ही पूजा करने के विषय पर प्रश्न किया
तो अम्मा ने कहा- “वास्तव में मैं सब की पूजा करती हूँ। मुझे ऐसे ईश्वर पर विश्वास नहीं है जो ऊपर आसमान में कहीं सिंहासन पर विराजमान हैं। सभी प्राणी मेरे ईश्वर हैं। उनसे प्रेम करना व उनकी सेवा करना ही मेरी पूजा है।”

सनातन धर्म में निर्गुण निराकार ब्रह्म को आधार माना जाता है। इसे समझाने के लिये अम्मा कहती हैं कि सोने के सब आभूषण अलग-अलग रूप-आकार के दिखते हैं पर मूल रूप में सभी सोना हैं। इसी प्रकार एक ही परब्रह्म विभिन्न नामरूपों में जगत बनकर भासित हो रहा है। जब किसी को इस सत्य का ज्ञान हो जाता है तब वह परमज्ञान, उसके विचारों और व्यवहार में निःस्वार्थ प्रेम एवं करुणा के रूप में प्रकट होता है।

हर वर्ष अधिकाधिक लोग अम्मा के दर्शन के लिये खिंचे चले आते हैं। 1987 में पश्चिमी भक्तों के आमंत्रण पर अम्मा पहली बार विदेश गई थीं। अब अम्मा भारत के अलावा अमेरिका, यूरोप, ऑस्ट्रेलिया, जापान, श्रीलंका, सिंगापुर, मलेशिया, कॅनाडा, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका भी जाती हैं।

अम्मा ने एक विशाल सेवा संस्था की स्थापना की है जो बिना किसी भेदभाव के मानव मात्र की सेवा में समर्पित है। इस संस्था ने 1998 से अब तक करीब 230 करोड़ रुपये की निःशुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ उपलब्ध कराई हैं; बेसहारा लोगों के लिये 40,000 मकान निःशुल्क प्रदान किये हैं तथा वर्तमान में करीब 1,00,000 निराधार गरीबों को आर्थिक सहायता दे रही है। महाराष्ट्र में विदर्भ, आन्ध्र प्रदेश, तमिल नाडु और केरल में गरीब किसानों द्वारा आत्महत्या की बढ़ती संख्या को देखते हुए उसके प्रतिरोध के लिए अम्मा ने एक बृहद्‌ योजना को रूप दिया – जिसके अंतर्गत अम्मा 1,00,000 पीड़ित गरीब बच्चों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान करेंगी। आश्रम अनाथालय, वृद्धाश्रम, स्कूल व कॉलेज, पर्यावरण संरक्षण योजना, रोज़गार प्रशिक्षण, साक्षरता अभियान इत्यादि, के अलावा तकनीकी अनुसंधान कार्यक्रमों में भी संलग्न है।

दिसंबर 2004 में दक्षिण भारत में आयी सुनामी आपदा के बाद अम्मा ने 6 माह के अंदर ही केरल, तमिल नाडु, अंडमान एवं श्रीलंका के पीड़तों को सुनामी-भूकंप निरोधी मकान बनाकर प्रदान किये थे। गुजरात, कश्मीर, बंगाल, बिहार, कर्नाटक एवं महाराष्ट्र के अलावा अमेरिका में भी राहत कार्य किये हैं।

अक्तूबर 2009 में कर्णाटक एवं आंध्रप्रदेश में आये भीषण जल प्रकोप से हज़ारों लोग विस्थापित हुए थे। इस प्राकृतिक आपदा के समय अम्मा के आश्रम की ओर से बाढ़पीड़तों के लिये वैद्यकीय सेवा एवं अन्य सेवाएँ प्रदान की गयी। तत्पश्चात् अम्मा ने बाढ़पीड़तों के लिये 50 करोड़ की सहायता राशि की घोषणा की एवं एक साल के अंदर ही कर्णाटक में रायचूर जिले में 350 मकान बनाकर लाभभोक्ताओं को प्रदान किये गये। इस प्रकार जल्द ही 3 गावों का संपूर्ण निर्माण किया जायेगा।

अम्मा अंतराष्ट्रीय स्तर पर जानी जाती हैं। वे संयुक्त राष्ट्रसंघ में कई बार तथा विश्व धर्म संसद में दो बार भाषण दे चुकी हैं। जेनेवा में उन्हें गांधी-किंग पुरस्कार से राष्ट्रसंघ द्वारा सम्मानित किया गया तथा न्यूयार्क में जेम्स पार्क मॉर्टन इंटरफेथ पुरस्कार से।

केरल में अम्मा का जन्म स्थान विश्वव्यापी सेवा संस्थाओं का मुख्यालय बन गया है। आश्रम में करीब 3000 भक्त रहते हैं। वे अम्मा की शिक्षाओं को आत्मसात करते हैं, विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन करते हैं, ध्यान करते हैं और सेवा कार्यों में व्यस्त रहते हैं।

अम्मा अब तक करीब तीन करोड़ लोगों को गले लगाकर सांत्वना दे चुकी हैं। जब उनसे पूछा जाता है कि इतना सब करने के लिये आपको ऊर्जा कहाँ से मिलती है? तो वे उत्तर देती हैं – “ जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ सब कुछ अनायास ही हो जाता है।”