तुमने उस लड़की की कथा सुनी है जिसने ड्रॅाईंग प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया? उसको पुरस्कार में एक फानूस प्राप्त हुआ जिस पर बड़ी खूबसूरत नक्काशी की गई थी। उसने इसे अपने घर की बैठक में लगा दिया। उस फानूस के सौन्दर्य को निहारते-निहारते, उसका ध्यान पहली बार दीवार के उतरते रंग-रोगन की ओर आकर्षित हुआ। उसने दीवारों पर पुताई करवाने का निर्णय किया। जब पुताई हो चुकी तो उसका ध्यान खिडकियों पर लगे मैले-कुचैले पर्दों की ओर गया। उसने तुरन्त उन्हें उतार कर धो डाला। फिर उसने सोचा कि गलीचे की भी सफाई करवानी चाहिए। इस प्रकार, एक-एक करके उसने सारे कमरे को नए जैसा चमचमाता, साफ़-सुथरा बना दिया। इस सबका आरम्भ हुआ एक खूबसूरत फानूस से!

जीवन में भी ऐसा ही होता है। हम एक सत्कार्य से आरम्भ करें तो देखेंगे कि अन्य कई सकारात्मक कार्य होते जाते हैं – मानो एक नया जन्म! क्योंकि परमात्मा गुणों का भण्डार हैं। हम उनकी ओर एक कदम बढ़ाएँ तो वो हमारी ओर छः कदम बढ़ाते हैं। इस का तात्पर्य यह कदापि नहीं कि परमात्मा हमसे दूर हैं। अपितु तात्पर्य यह कि यदि हम सद्गुणों को आत्मसात करते हैं तो यह परमात्मा को आत्मसात करने के समान है। हमारा प्रत्येक सत्कर्म परमात्मा की ओर उठाया हुआ एक कदम है। इसके साथ ही, अन्य सद्गुण भी आने लगेंगे। किन्तु इस प्रक्रिया का कहीं तो शुभारम्भ करना होगा, कम से कम एक सद्गुण तो विकसित करने की इच्छा होनी चाहिए!

कभी-कभी परीक्षा में पास होने के प्रतिशत अंक कम हों तो जिन विद्यार्थियों के अंक पास होने के लगभग निकट होते हैं, उन्हें ‘ग्रेस-मार्क्स’ दे दिए जाते हैं। यद्यपि सब विद्यार्थी उसके लिए योग्य हैं परन्तु यदि उनके अंक पास होने के अंकों के निकट नहीं होते तो वे उससे लाभान्वित नहीं होते। बिना पढाई किये, कोई केवल ‘ग्रेस-मार्क्स’ से पास नहीं हो सकता। अतः, बच्चे का पुरुषार्थ तो वांछनीय है। उसी प्रकार, यद्यपि परमात्मा की कृपा सतत बरस रही है, किन्तु उससे लाभान्वित होने के लिए हमारी ओर से कुछ प्रयास अवश्य होना चाहिए। यदि हमारा भाव उचित नहीं है, हृदय खुला नहीं है तो सब व्यर्थ है। दिन के समय खिड़कियाँ बन्द करके यदि हम शिकायत करें कि, “मुझे सूर्य प्रकाश नहीं देता!” तो इसका कोई अर्थ थोड़े ही है। सूर्य का प्रकाश तो सर्वत्र है, सबके लिए है। करना है तो बस इतना कि अपने खिड़कियाँ, दरवाज़े खुले रखें। इसी प्रकार, परमात्मा की कृपा-प्राप्ति के लिए हमें अपने हृदय-द्वार को खुला रखना होगा। तो, परमात्मा की कृपा से अधिक हमें अपने मन की कृपा की आवश्यकता होगी।

परमात्मा तो कृपा की मूर्ति हैं। हमारी आत्म-कृपा की कमी ही हम तक परमात्म-कृपा को पहुँचने से रोकती है। यदि कोई व्यक्ति हमें कुछ देना चाहे और हम अभिमानी जैसा व्यवहार करें तो वो व्यक्ति यह सोच कर पीछे हट जायेगा कि, “यह तो बड़ा अभिमानी है! मैं किसी और को दे दूंगा। ” अभिमानी व्यक्ति कृपा से वंचित रह जाता है। हम तक परमात्म-कृपा इसीलिये नहीं पहुँचती क्योंकि आत्म-कृपा का अभाव है। हमारी अंतरात्मा कहती है कि, “ऐसा करो।” हमारी बुद्धि कहती है, “थोड़ी विनम्रता से पेश आओ”, जबकि मन कहता है, “मैं क्यों विनम्र बनूं? मैं उसके सम्मुख क्यों झुकूं?” तो जो हमें प्राप्त होनी चाहिए थी वो कृपा भी प्राप्त नहीं होती। अतः, परमात्म-कृपा की प्राप्ति हेतु, पहले आत्म-कृपा का होना आवश्यक है।

परमात्मा की ओर पहला कदम उठाने के लिए, हमें अपने अभिमान से छुटकारा पाना होगा। इसीलिये अम्मा सदा कहती हैं कि, “बच्चो,नौसिखिये बनो।” एक नौसिखिये का भाव अहम्-भाव पर नियंत्रण पाने में सहायक सिद्ध होता है। इसका अर्थ यह नहीं कि तुम्हें प्रगति के लिए प्रयत्न ही नहीं करना चाहिए। जब हम समाज में रहते हैं, सामूहिक रूप से कार्य करते हैं तो स्वाभाविक ही हमारी प्रगति को ले कर संदेह भी होंगे। सबका अपना-अपना धर्म होता है। हमें उसके अनुसार ही चलना चाहिए। यदि कोई गाय बगीचे में घुस कर फूल-पौधे खाने लग जाए और तुम उसे नम्रतापूर्वक कहो, “ऐ गाय! यहाँ से चली जा,” तो वह चरती रहेगी परन्तु यदि तुम चिल्ला कर कहो, “ऐ, चल निकल यहाँ से!” तो वह भाग खड़ी होगी। गाय को भगाना कोई अहंकारी कर्म नहीं है। हम केवल गाय के अज्ञान को झटका देने के लिए अपनी आवाज़ को ऊंचा करते हैं तो इसमें कुछ गलत नहीं। परन्तु हमारा भाव एक नौसिखिये सा होना चाहिए। इसके साथ-साथ, भीतर कहीं गहरे में, शिशुवत निर्दोषता बनी रहे।

आज हमारे शरीर तो विकास को प्राप्त हो गए हैं किन्तु मस्तिष्क नहीं। मन-मस्तिष्क के ऐसे विकास तथा विस्तार के लिए कि उसमें सम्पूर्ण जगत् समा जाए, हममें बालक का सा भाव होना चाहिए। एक बालक ही विकसित हो सकता है। किन्तु आज अधिकांशतः, मस्तिष्क मद से चूर हैं। हमें इस अहंकार, मद से निजात पाने के लिए प्रयास अवश्य करना चाहिए। आवश्यकता है दूसरों के साथ तालमेल बनाने की।

यदि एक तंग गली से दो कारों को गुज़रना हो तो उनमें से एक को पीछे हटना ही होगा। यदि दोनों का दुराग्रह रहे कि, “मैं तो अपने स्थान से हिलूंगी नहीं! मैं पीछे नहीं हटूंगी!” तो दोनों ही फंसी रहेंगी और कोई भी अपने गंतव्य तक नहीं पहुँचेगी। दोनों में से एक भी थोड़ा पीछे हट जाए तो फिर दोनों आगे बढ़ जाएँगी। रास्ता छोड़ने वाला तथा स्वीकार करने वाला – दोनों ही व्यक्ति आगे बढ़ने के अधिकारी हो जाते हैं। इसीलिये अम्मा कहती हैं कि क्षमा करने का अर्थ है आगे बढ़ चलना। क्षमा-याचक तथा क्षमा-दाता – दोनों को ही क्षमा ऊर्ध्व-गमन का अधिकारी बना देती है। ऐसे क्षमा-रूपी कर्म, परमात्मा की ओर जाने वाले मार्ग पर हमारे नन्हें-नन्हें कदम हैं। हमारी ओर से किंचित भी प्रयास हो तो परमात्मा हमारी सहायता अवश्य करेंगे। किन्तु यदि हमारी ओर से कोई प्रयास ही नहीं होगा तो हम परमात्म-कृपा पाने में असमर्थ रहेंगे। इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं, दोष तो हमारा है। यह सदा स्मरण रहे। परमात्मा की ओर हम कम से कम एक कदम तो बढायें, तभी तो हम उनकी कृपा के पात्र बनेंगे।