प्रश्न – मंदिरों में भोग चढ़ाने की जरूरत क्या है?

अम्मा – भगवान को हमसे किसी चीज की जरूरत नहीं है। समस्त सृष्टि के नाथ – उस त्रिलोकीनाथ को किस चीज की कमी है? सूरज को मोमबत्ती की क्या आवश्यकता है?

वास्तविक चढ़ावा तो सही जीवन तत्त्व को जान समझकर, उसके अनुसार जीवन यापन करना है। आवश्यकता अनुसार  खाना, आवश्यकता अनुसार सोना, आवश्यकता अनुसार बोलना, दूसरों को ठेस पहुचाने वाले शब्द न बोलना, बेकार समय व्यर्थ न करना, बुजुर्गों की सेवा करना, उनसे मीठे शब्द कहना, बच्चों को पढाई में मदद करना, कोई खास काम न हो तो कोई व्यवसाय सीख कर घर पर ही कर्म करना और उससे जो पैसे बनें उससे गरीबों की सेवा करना – यह सब ईश्वर से प्रार्थना करना है, सभी ईश्वर आराधना ही है।

 

विचार, वाणी और कर्म में सही ज्ञान के समावेश से हमारा जीवन ही पूजा बन जाता है। यही वास्तविक चढ़ावा है। किन्तु शास्त्रों का सही अध्ययन न करने के कारण हम इन बातों को ठीक से समझ नहीं पाते। आज सनातन धर्म को सही अर्थ में समझने के अवसर भी कम मिलते हैं।

आज मंदिर अनेक हैं। उनके माध्यम से अनेक लोगों को रोजी रोटी भी मिलती है। परन्तु इसके साथ-साथ लोगों को अध्यात्म का ज्ञान भी देने की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि ऐसा हो पाता तो लोगों को बहुत फायदा होता। आज समाज में इसकी कमी का स्पष्ट अहसास हो रहा है।

चाहे किसी भी ध्येय से हो, ईश्वर से रोते हुए प्रार्थना करना अच्छा ही है। वह हमें भलाई की ओर ले चलेगी। बच्चा अपने पिता को ‘बप्पू’ पुकारे या ‘पापू’ पिता उसका जवाब देंगे। पिता जानते हैं कि बच्चा ठीक उच्चारण न जानने के कारण ऐसा पुकारता है। ईश्वर केवल तुम्हारे हृदय को देखते हैं। वे हृदय से उमडती प्रार्थना से मुँह मोड नहीं सकते।

चढ़ावा शब्द सुनने पर हमारे मन में खीर आदि का भोग चढ़ाने की बात उभर आती है। इस विषय में शायद कुछ लोग प्रश्न करें कि जब इतने गरीब लोग भूखे रहते हैं तो ईश्वर को खीर क्यों चढ़ायी जाय? हमने तो किसी देवता को खीर पीते नहीं देखा है। अन्ततः खीर हमीं लोग पीते हैं। मंदिर में चढ़ाया हुआ प्रसाद हम आपस में बाँटकर खाते हैं। तब आस-पास रहनेवाले गरीब बच्चों को खीर पीने को मिलती है। उनके मन का प्रसाद, उनकी प्रसन्नता ईश्वर की प्रसन्नता के रूप में हम तक पहुँचती है। यद्यपि खीर हमें प्रिय है, उसे अकेले खाये बिना दूसरों के साथ बाँटकर खाने से हमारा मन विशाल होता है। उस विशालता से ही वास्तविक आनन्द की प्राप्ति होती है। वही ईश्वर का आशीर्वाद है।

हम जो कुछ भी करते हैं वह ईश्वर की कृपा पाने के लिये ही करते हैं। अतएव हम जो कुछ भी करें वह प्रभु को समर्पित करते हुए करना चाहिये। किसान खेत में बीज बोने से पहले प्रार्थना करता है। उसके बाद ही वह बोता है। इसका कारण यह है कि पुरुषार्थ की अपनी सीमा होती है। कर्म पूरा करने व उसके फल की प्राप्ति के लिये ईश्वर कृपा का होना अनिवार्य है। धान के बीज बोने के बाद, उसके अंकुरित होकर, उगने, पकने के बाद, फसल के समय यदि बाढ आ जाय तो सब कुछ ध्वस्त हो जायेगा। हम जो भी कर्म करें वह ईश्वर कृपा से ही पूर्ण होता है। इसलिये हर वस्तु को प्रभु को चढ़ाने के बाद ही उसे स्वीकार करने की प्रवृत्ति – पूर्वजों की दी गई संस्कृति है। भोजन करते समय भी पहला कौर प्रभु को चढ़ाना चाहिये। यह समर्पण और बँटवारे की प्रवृत्ति है। हम उसके जरिये यह ज्ञान कार्यान्वित करते हैं कि जीवन को केवल अपने लिये न मानकर दूसरों के साथ बाँटें। मन जिसमें बंधा रहता है उसे समर्पित करने की प्रविधि भी इसमें शामिल है।

यदि हम देखें कि आज हमारा मन किससे अधिक बंधा है तो यह स्पष्ट होगा कि वह नब्बे प्रतिशत धन से बंधा हुआ है। पैतृक संपत्ति के बंटवारे के समय यदि हमारे हिस्से में अगर नारियल के दस पेड कम हो जायें तो हम अपनी माँ को तक कचहरी में खडा करने में संकोच नहीं करेंगे। एक कन्या से ब्याह करते समय उसकी पारिवारिक हैसियत ही नहीं, आर्थिक स्थिति का भी जरूर पता लगा लेते हैं। विरले ही लोग इसका अपवाद होंगे। अर्थात मन केवल संपत्ति में ही बंधा रहता है। इस मन को ऐसे बंधन से मुक्त कराना आसान बात नहीं है। किन्तु उसका सरल मार्ग ईश्वर में सब कुछ अर्पित करना है। यदि हम अपने मन को ईश्वर में अर्पित करें तो वह पवित्र हो जायेगा। इस समर्पण के अंग के रूप में ही भगवान को प्रिय वस्तु चढ़ाते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण को खीर प्रिय है। वस्तुतः कृष्ण शब्द अपने में मधुर है। प्रेम नामक माधुर्य से मधुर। किन्तु हमें खीर प्रिय है। पर हमेशा प्रभु को खीर चढ़ाने के कारण हम तो उलटे यह समझ बैठे हैं कि प्रभु को खीर प्रिय है। असल में वह हमारी प्रिय वस्तु भगवान को चढ़ाने की प्रविधि है। भगवान प्रेम हैं। प्रभु हमारे हृदय के खीर – उस प्रेम से ही प्रसन्न होते हैं।

एक भक्त सेव, अंगूर और विविध मिठाइयों के ढेर खरीदकर पूजा भवन में रखने के बाद प्रभु से निवेदन करता है, “हे प्रभु! देखिये मैं आफ लिये क्या-क्या लाया हूँ – सेव, अंगूर, मिठाई – आप को खुशी हुई ना?”

तुरन्त आकाशवाणी सुनाई पडी, “मुझे इन सब से प्रसन्नता नहीं होती।”

“तो भगवन्, बताइये कि आपको संतोष देने वाली वस्तु क्या है। मैं वह खरीद लाऊँगा।” वह व्यक्ति बोला।

“मैं तो मानस पुष्प से ही तृप्त होऊँगा। वही मुझे प्रिय है।” भगवान ने उत्तर दिया।

“मानस पुष्प? यह पुष्प कहाँ मिलता है?” उस व्यक्ति ने पूछा।

“तुम्हारे ही पडोस में।”

भक्त तुरन्त उस पुष्प की खोज में भागा दौडा गया। परन्तु उसके पडोस में कोई भी इस मानस पुष्प के बारे में कुछ नहीं जानता था। वह इस पुष्प की खोज में गाँव के घर-घर गया। परन्तु सभी जगह से उसे वही उत्तर मिला, “हमने न तो ऐसे पुष्प को देखा है और न ही कहीं उसके बारे में सुना है।”

थका माँदा, भक्त अपने घर लौटा। पूजा कक्ष में लौटकर उसने भगवान से कहा, “प्रभु! क्षमा करें। मैं पूरे गाँव में खोजता फिरा परन्तु आपका बताया हुआ मानस पुष्प कहीं नहीं मिला। अब तो मैं अपना हृदय ही आपको अर्पित करता हूँ।”

“वही फूल मैंने माँगा था – वही मानसपुष्प है। तुमने पहले जितनी भी चीजें चढ़ाईं वे तो मेरी ही शक्ति से उत्पन्न हुई हैं। मेरी शक्ति के बिना तुम अपना हाथ तक नहीं उठा सकते। संसार में सभी कुछ मेरी सृष्टि है। परन्तु तुमने भी एक चीज की सृष्टि की है – ‘मैं’ का भाव। वही मुझे चढ़ाना चाहिये। तुम्हारा निश्छल हृदय ही मेरे लिये सबसे प्रिय पुष्प है।” यह था प्रभु का उत्तर।