प्रश्न— मेरी समझ में नही्‌ आता कि र्ईश्वर की बनाई वस्तुओं के उपभोग से आनंद लेने में क्या आपत्ति है? ईश्वर ने हमें इन्द्रियाँ क्या इसीलिये नही दी हैं कि हम वस्तुओं का आनंद ले सकें?

अम्मा— जैसा अम्मा ने अभी कहा, कि हर वस्तु की नियम और सीमाएँ है और हमें उन नियमों के अंतर्गत जीना चाहिये। हरवस्तु की एक अंतर्निहित प्रकृति होती है। ईश्वर ने हमें केवल इन्द्रियाँ ही नहीं दी हैं, वरन्‌ विवेक—बुद्धि भी दी है। जो व्यक्ति उसका उपयोग न कर, इन्द्रिय सुखों के पीछे भागते रहते हैं, उन्हें कभी सुख शान्ति नहीं मिल सकती। उनका अंत हमेशा दुःखद ही होगा।

एक यात्री एक बार विदेश गया। उस देश में वह पहली बार गया था। वहाँ के लोग उसके लिये अजनबी थे। उसे वहाँ की भाषा नहीं आती थी, न उनके रीतिरिवाज मालूम थे, न खान—पान की आदतें ज्ञात थी। वह घूमते—घामते, बाजार में पहुँच गया, जहाँ खरीददारों की बहुत भीड़ थी। वहाँ तरह—तरह के फल थे, जो उसने पहले नहीं देखे थे। उसने देखा कि बहुत से लोग एक विशिष्ट फल खरीद रहे थे। उसने सोचा कि ये फल ज़रुर स्वादिष्ट होगा और एक थैला भर खरीद लिया। एक झाड़ के नीचे बैठकर, उसने एक फल चखा। फल जरा भी मीठा नहीं था — उसका मुँह जलने लगा।

उसने फल का मध्यभाग चखा— वह भी तीखा था। फल का दूसरा सिरा भी बहुत तीखा निकला। उसने दूसरा फल चखा, वह भी तीखा निकला। उसने सोचा कोई फल तो मीठा होगा— उसने एक—एक करके सभी फल चखे। तीखे स्वाद के फलों से उसका मुँह जलता रहा,आँसू बहने लगे, पर वह ज़िद्दपूर्वक, एक के बाद एक फल खाता ही गया। बेचारा बहुत पीड़ा में था। मीठे स्वादिष्ट फल की तलाश में, उसे मिले— केवल मुँह जलाने वाले, तीखे स्वाद के फल।

जिन्हें वह मीठे फल समझा था— वह थी पकी लाल मिर्च! हर मिर्च चखकर कष्ट उठाना आवश्यक नहीं था। परंतु इस झूठी आशा में कि कोई फल तो मीठा होगा— वह अंतिम मिर्च तक खाता ही चला गया। मिर्च का तो स्वभाव है— तीखापन! एक मात्र सुख जो उसे मिला, वह था मिर्च की सुंदरता देखने का सुख।

इसी प्रकार हम भी बार—बार उन्हीं चीज़ों में सुख ढूँढते हैं, जिनमें सुख है ही नखीं। सुख की खोज में हम एक वस्तु से, दूसरी और फिर तीसरी पर जाते रहते हैं। यह केवल मन का भ्रम ही है कि हम बाहरी वस्तुओं से सु्ख पा सकते हैं।

सत्य यही है कि बाहरी किसी वस्तु में सुख है ही नहीं। जो सुख तुम खोज रहे हो वह तुम्हारे अंदर ही है। ईश्वर ने हमें शरीर, मन व बुद्धि दी है ताकि हम यह पाठ पढ़ सकें व सच्चे सुख का उद्‌गम खोज सकें। अविवेकपूर्ण इन्द्रिय भोग से तो सुख के बजाय दुःख ही हाथ आयेगा।

शरीर व इन्द्रियों का उपयोग हम दो प्रकार से कर सकते हैं। पहला— यदि हम ईश्वर को जानने का प्रयत्न करें तो हम अनंत सुख पा सकते हैं। परंतु यदि इन्द्रिय सुखों के पीछे ही भागते रहें, तो मिर्च में मिठास ढूँढने वाले मूर्ख यात्री के समान दुःख ही पाते रहेंगे। इन्द्रिय सुखों की मूल प्रकृति ही दु:ख देने की है, यह समझे बिना उनके पीछे दौड़ने से दुःख ही हासिल होगा। अगर हम बाहरी वस्तुओं की मूल प्रकृति समझ लें, तो उनसे उत्पन्न दुःख, हमें कमजोर नहीं बना सकेगा।

सागर में लहरें उठती हैं, परंतु अगले ही शण तट पर गिर कर चूर हो जाती हैं। वे ऊपर रुक नहीं सकती, गिरना उनकी नियति है। जो व्यक्ति सुख पाने की आशामें बाहरी वस्तुओं की ओर लपकता है, वह भी इसी तरह गिरकर दुःखी होता है। इससे हमें यह समझ लेना चाहिये कि सुख बाहरी वस्तुओं में नहीं है। लोगों की आंतरिक अशांति व दु:ख का कारण यही भ्रम है। इससे केवल व्यक्ति नहीं, पूरा समाज प्रभावित हो रहा है। बाहरी वस्तुओं में सुख की खोज के कारण ही सच्चा प्रेम लुप्त हो गया है। पारिवारिक जीवन की खुशी व शांति नष्ट हो गई है। लोगों ने खुले दिल से प्रेम व सेवा करने की शमता खो दी है। पति पराई स्त्रियों की कामना करते हैं और स्त्रियाँ पराये मर्दों की। भोग की लालसा इस हद तक बढ़ चुकी है कि कुछ ऐसे पिता भी हैं, जो भूल जाते कि वह उनकी अपनी बेटी है। भार्ई बहन के रिश्तों में भी दरार पड़ रही है। अनगिनत बच्चों की हत्या की जा रही है। इस सारी दुष्टता का कारण यह भ्रामक अवधारणा है कि सुख बाहर पाया जा सकता है। अम्मा यह नहीं कह रही है कि तुम भौतिक सु्खों से वंचित रहो। परंतु तुम्हें उनकी मूल प्रकृति से अवगत रहना चाहिये। अति से बचना चाहिये। धर्म पकड़े रहो और अधर्म से बचो।

जो लोग केवल अपने लिये सुख खोजते फिर रहे हैं तथा असंयमित जीवन जी रहे हैं, उनका अंत दु:खदायी ही होगा? यह स्वाभाविक है कि कामनाएँ और भावनाएँ मन में पैदा हों— लेकिन कुछ संयम बरतना आवश्यक है। भूख लगना स्वाभाविक है— परंतु इसका अर्थ यह तो नहीं कि कहीं भी, कभी भी, कुछ भी, खाने योग्य दिेखे तो हम उस पर टूट पड़ें। ऐसा करेंगे, तो बीमार पड़ जायँगे। अधिक भोग से दु:ख ही पैदा होगा, लेकिन लोग यह नहीं समझते।

इन्द्रिय सुख भी वास्तव में अंदर से ही प्राप्त होता है। परंतु लोग सुखों का बाहर, पागलों की तरह, तब तक पीछा करते हैं, जब तक कि वे हार कर, निराश हो कर गिर न पड़ें। वे उठकर फिर भागते हैं और फिर गिरते हैं। यदि तुम सुखों को बाहर ही खोजते रहोगे, तो जीवन में कभी शांति नहीं पा सकोगे। तुम्हें अंदर देखना सीखना होगा, वहां तुम्हें सच्चा सुख मिलेगा। जब तक तुम्हारा मन बाहरी कूद—फाँद बंद कर के, शांत नहीं हो जाता, तब तक तुम सच्चा सुख अनुभव नहीं कर सकते। सागर की गहराई में बेचैनी की कोई लहरें नहीं हैं। जब तुम मन की गहराइयों में उतरोगे, तो मन स्वतः शांत हो जायेगा। वहाँ तुम केवल आनंद पाओगे।