कईयों के लिए ईश्वर आराधना पार्ट-टाईम कार्य होता है, अंशकालिक कार्य होता है। हमें अंशकालिक भक्ति की नहीं वरन् पूर्णकालिक भक्ति की आवश्यकता है। किसी इच्छा की पूर्ति के लिए की जाने वाली प्रार्थना पार्ट टाईम भक्ति है। ‘भक्ति के लिए भक्ति’ की आवश्यकता है। केवल ईश्वर प्रेम की ही इच्छा रखनी चाहिए और उसी के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। सदैव ईश्वर स्मरण करना चाहिए। सभी में उनका दर्शन करना चाहिए। प्रार्थना करने की शक्ति भी वे ही प्रदान करते हैं। यदि उनकी शक्ति न होती तो हम अपना हाथ तक उठा न पाते, एक उँगली तक को हिला न पाते। यह निरन्तर बोध – कि वे ही सभी कुछ करा रहे हैं – यही फुल टाईम भक्ति है। इसके माध्यम से शरीरमनोबुद्धि में अधिष्ठित ‘मैं’ भाव को छोडकर हम सर्वव्यापी चैतन्य बन पायेंगे।

 

कालीदास ने मंदिर के भीतर प्रवेश किया और उन्होंने किवाड बन्द कर दिया। देवी ने आकर द्वार पर दस्तक दिया। परन्तु द्वार नहीं खुले। “भीतर कौन है?”, देवी ने पूछा। तुरन्त भीतर से एक प्रतिप्रश्न उठा, “बाहर कौन है?” पुनः प्रश्न, “भीतर कौन है?” उसका प्रत्युत्तर, “बाहर कौन है?” अन्ततः देवी ने उत्तर दिया, “बाहर काली है।” तब भीतर से पहले प्रश्न के उत्तर में, “भीतर दास है।” इतना प्रश्न करने पर भी मैं अमुक व्यक्ति हूँ ऐसा नहीं कहा, नाम नहीं बताया। ‘बाहर काली’ कहे जाने पर ही भीतर ‘दास’ कहा। उसी क्षण पूर्ण दर्शन भी प्राप्त हुए। ‘मैं’ के अन्त होने पर केवल ‘तुम’ रह जाता है। ‘मैं’ से जुडा संकुचित व्यक्तित्व नष्ट हो जाता है। केवल भगवद् इच्छा ही रह जाती है; यह बोध की वे ही कर्ता-धर्ता हैं, ही वास्तविक भक्ति है। उससे सब कुछ मिल जाता है, पाने को कुछ बाकी नहीं रह जाता।

हमारी आँखं की ज्योत तक ईश्वरप्रदत्त है। दस रूपये से खरीदे जाने वाले हमारे दीप की ज्योत की उन्हें आवश्यकता नहीं है। ईश्वर को हमसे कुछ पाना नहीं है। ईश्वर का आश्रय ग्रहण करने से हमें ही लाभ है। ईश्वर को चढ़ावा चढ़ाना समर्पण का प्रतीक है। उससे हममें समर्पण भाव का विकास होता है। यही नहीं, तिल के तेल या घी का दीप जलाने पर उससे उठता धुँवा अंतरिक्ष को शुद्ध करता है। इसके विपरीत यह भाव नहीं होना चाहिये कि हम अपना कार्य साधने के लिये ईश्वर को चढ़ावे के रूप में रिश्वत दे रहे हैं।

बीज जितना भी उत्तम हो यदि वह हाथ में ही पडा रहे तो अंकुरित नहीं होगा। उसे मिट्टी में बोने पर ही वह अंकुरित होता है। बीज को मिट्टी के सम्मुख झुकना पडता है। इस समर्पण भाव के जागरण पर ही फल की प्राप्ति होगी। इसी प्रकार ‘मैं और मेरी इच्छाओं की पूर्ति’ के भाव को छोडकर, सब कुछ उन्हीं का है, उनकी इच्छा के अनुसार जो हो सो हो – इस भाव का विकास करना चाहिए। इस समर्पण भाव से ही भक्ति पूर्ण होगी।

समर्पण की बात करने पर कुछ लोग सोचेंगे कि ईश्वर को कुछ अर्पित करने से ही फलप्राप्ति होगी। हमें समर्पण को इस अर्थ में नहीं लेना चाहिए। हम अभी शरीर, मन व बुद्धि के तल पर ही हैं। मैं शरीर हूँ। मैं अमुक व्यक्तियों का पुत्र या पुत्री हूँ। मेरा नाम अमुक है। ऐसे हमने इस ‘मैं’ के साथ जो कुछ जोड रखा है उन सब का ही अर्पण होना चाहिए। अहंकार – केवल वही हमारी सृष्टि है! उसका ही त्याग करना है। उसी का उनमें समर्पण करना है। उसके समर्पण के बाद जो शेष है वह ईश्वरसृष्टि ही होगी। हम ईश्वर के अधरों से लगे हुए मुरली बन जाएँगे, नादोद्घोष करते शंख हो जाएँगे। अनंत में उडान भरने के लिए हमारे व्यक्तित्व को त्यागना मात्र ही पर्याप्त है। ‘मैं’ और ‘मेरा’ को त्यागने पर व्यक्ति नहीं रह जाता, केवल समष्टि रह जाती है।

बीज को हाथ में रखे रहने पर वह अंकुरित नहीं होता, उसे चट्टान पर डालने पर भी वह अंकुरित नहीं होता, उसे उर्वरक मिट्टी में ही बोना पडता है; उसी प्रकार हमारे किसी भी कर्म का सही लाभ पाने के लिए अहंकार को त्यागना होगा। समर्पण भाव का जागरण होना चाहिए। तब उनकी कृपा से सब कुछ स्वयमेव सिद्ध हो जाएगा।

ईश्वर में हमें अपने मन का समर्पण करना चाहिए। मन कोई वस्तु नहीं है कि हम उसे उठाकर ईश्वर में अर्पित कर दें। इसीलिए मन जिस किसी विषय-वस्तु में बंधा है, उसका समर्पण मन के समर्पण के तुल्य है। कुछ लोगों को खीर पसन्द है। वे उसका भोग लगाते हैं। उसका दस गरीब बच्चों में प्रसाद रूप में वितरण होता है – तो यह भी उसका एक प्रयोजन हुआ। मन सर्वाधिक संपत्ति से बंधा है। उससे मुक्ति पाने के लिए पैसा चढ़ावे के रूप में चढ़ाया जाता है।

हम मंदिरों में जाकर पुष्पांजलि अर्पित करते हैं। वास्तव में उनके चरणों में हमारे हृदय प्रसूनों को अर्पित करना चाहिए। जब हम हमारे हृदय को ही उनके चरणों में अर्पित कर देते हैं तो वह भक्ति हुई, वास्तविक समर्पण। उसके प्रतीकरूप में हम पुष्प अर्पित करते हैं। मन दुःखों के भार से पीडत है, तो ईश्वर से अपने दुःखों के बयान करने में कोई गलती नहीं है। अपने हृदय के भावों को ईश्वर से बाँट सकते हैं। हमारे भार को उनके सम्मुख हम उतार कर रख सकते हैं। परन्तु हमारी प्रार्थना भक्ति के लिए हो। केवल उससे ही पूर्ण फल की प्राप्ति संभव है। हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि सब कुछ बताने से ही ईश्वर जान सकेंगे।

वकील और डॉक्टर से सब कुछ खुलकर बोलना पडता है। तभी वकील सही वकालत और डॉक्टर रोग को जान-समझकर उसका उपचार कर सकते है। परन्तु ईश्वर को कुछ न कहने पर भी वे सब कुछ जानते हैं, वे सर्वज्ञ हैं। प्रार्थना, ईश्वरप्रेम को पाने के लिए हो। जब हमारी प्रार्थना केवल ईश्वर के लिए ही होती है तो हमारे पूछे बिना ही ईश्वर हमारी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। हमें प्रार्थना करनी चाहिए कि हम उनसे एक हो जाएँ। वैसा करने पर उनकी कृपा सहज रूप से ही हममें प्रवाहित हो जाएगी, हम ईश्वरीय गुणों से आपूरित हो जाएँगे।

मंदिर में प्रवेश करने पर मन को पूरी तरह ईश्वर में ही केन्द्रित रखने का श्रम करना चाहिए। मौन मंत्रजप करते हुए प्रदक्षिणा करनी चाहिए। दर्शन करने के पश्चात् अंजलि बाँधे, आँखे बन्द कर खडे होते हुए एकाग्रता से उस रूप को अपने भीतर देखना चाहिए, ध्यान करना चाहिए। मंदिर में जाकर केवल बाह्य तौर पर दर्शन पाना पर्याप्त नहीं है। प्रतिदिन कुछ समय ईश्वरध्यान के लिए हटाकर रखना चाहिए। यथासंभव मंत्रजप करना चाहिए। इससे शक्ति का संचय होता है। कई उपनदियों में बहते जल को समाहित किया जाए, एक कर दिया जाए तो वह एक विशाल प्रवाह का रूप धारण कर लेगी, उसमें अपार शक्ति होगी। उससे विद्युत शक्ति का उत्पादन हो सकता है। उसी तरह कई विचारों के रूप में मन की शक्ति का भी व्यय हो रहा है। उसे एक ही विचार में एकाग्र कर लें तो वह एक महत् शक्ति बन जाएगी। यदि साधारण व्यक्ति की उपमा एक बिजली के खम्भे से की जाए तो तपस्वी की तुलना ट्रान्सफार्मर से की जा सकती है।