प्रश्न – क्या आप बता सकती हैं कि विग्रह आराधना का आरंभ कैसे हुआ?

अम्मा – सत्ययुग में असुर चक्रवर्ती हिरण्यकशिपु के प्रश्न के उत्तर में जब प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “इस स्तंभ में भी ईश्वर विराजमान हैं”,  तो उस स्तंभ से ईश्वर नरसिह रूप में प्रकट हुए। सर्वव्यापी ईश्वर इस प्रकार प्रह्लाद के संकल्प से स्तंभ से प्रकट हुए – इसे मूर्ति प्रतिष्ठा का प्रथम दृष्टान्त कहा जा सकता है। प्रह्लाद की कथा तो प्रसिद्ध है। असुरराज हिरण्यकशिपु ने त्रिलोकों को अपने वश में करने व कभी भी मृत्यु का ग्रास न बनने के लिए ब्रह्माजी की तपस्या की। हिरण्यकशिपु की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी ने उनसे पूछा कि वे क्या वर चाहते हैं तो असुरराज बोले, “मेरी मृत्यु न आकाश में हो न भूमि पर। न कमरे के भीतर हो न ही कमरे के बाहर हो। मेरी मृत्यु न दिन में हो न रात में। मेरी मृत्यु न स्त्री के हाथों हो न पुरुष के; मृत्यु ने देवों के हाथ हो, न असुरों के; न मनुष्य के द्वारा हो न पशुओं के। शस्त्रों से मेरी मृत्यु न हो।” ब्रह्माजी “तथास्तु!” कहकर, उसे वर प्रदान करके अंतर्धान हो गए।

हिरण्यकशिपु जब तपस के लिए बैठे थे उस अंतराल में अन्य एक घटना घटित हुई। हिरण्यकशिपु को तपस लीन जानकर उनके अभाव में देवों ने असुरों पर वार किया और उन्हें परास्त कर दिया। देवेन्द्र हिरण्यकशिपु की गर्भिणी पत्नी को बंधी बनाकर ले गए। बीच रास्ते ही उनकी मुलाकात नारद महर्षि से हुई जिनके उपदेशानुसार देवेन्द्र हिरण्यकशिपु की पत्नी को महर्षि के आश्रम में छोड कर स्वयं देवलोक चले गये। गर्भवती ‘कयाध’ को नारद महर्षि ने भागवत् तत्त्व से अवगत कराया। माता के गर्भ में शिशु ने भी इन सभी उपदेशों का श्रवण किया।

हिरण्यकशिपु तपस के पूर्ण होने पर लौटे और उन्होंने देवों को पराजित किया। नारद महर्षि के आश्रम में वास करती अपनी पत्नी को पुनः राजमहल ले आए। वर के बल से अहंकार में अंधे हिरण्यकशिपु ने त्रिलोकों पर आक्रमण कर दिया और उन्होंने उनपर विजय भी पा ली। उन्होंने देवों को अपना दास बनाया; वे ऋषि-मुनियों व भगवद् भक्तों को तंग करने लगे, याग यज्ञों को नष्ट-भ्रष्ट करने लगे। उन्होंने आदेश दिया कि आगे ‘हिरण्याय नमः’ के अलावा अन्य किसी मंत्र का उच्चारण न हो। उन्हीं की पूजा की जाए, अन्य किसी की नहीं।

यथासमय उनकी पत्नी ने एक पुत्र को जन्म दिया। बच्चे का नाम प्रह्लाद रखा गया। चूँकि उसे नारद महर्षि के उपदेशों का स्मरण था प्रह्लाद विष्णु भक्त बन गया। उपनयन के बाद पिता ने प्रह्लाद को गुरुकुल भेजा। कुछ समय बाद पिता को यह जानने की उत्सुकता हुई की उनके बेटे ने गुरुकुल में क्या सीखा है। उन्होंने प्रह्लाद को राजमहल बुलवाया। प्रह्लाद से पिता ने पूछा, “तुम ने गुरुकुल में क्या सीखा?” प्रह्लाद ने उत्तर दिया, “श्रवणम्, कीर्तनम्, स्मरणम्, पादसेवनम्, अर्चनम्, वंदनम्, दास्यम्, सख्यम्, आत्मनिवेदनम् – इन नवविध भक्तिमार्गों से भगवान की उपासना की जा सकती है।” अपने पुत्र के ही मुख से अपने परम शत्रु विष्णु की पूजा की जानी चाहिए, आराधना की जानी चाहिए, सुनकर हिरण्यकशिपु अतिक्रुद्ध हो गये। क्रोध के आवेग में उन्होंने सिपाईयों को आज्ञा दी कि वे प्रह्लाद को मार डालें। बहुविध प्रयासों के बाद भी सिपाई प्रह्लाद को मार न सके। निराश हुए हिरण्यकशिपु ने अपने पुत्र के मन से ईश्वर भक्ति को मिटा देने के विचार से उसे पुनः गुरुकुल भेजा। परन्तु वहाँ प्रह्लाद के उपदेशें से प्रभावित हो कर अन्य असुर बालक भी भगवद् भक्त बनने लगे। अत्यंत कुपित होकर हिरण्यकशिपु बोले, “मैं त्रिलोकों का नाथ हूँ। मेरे सिवा कोई अन्य ईश्वर है तो वह कहाँ है?” “ईश्वर सर्वव्यापी हैं। वे सर्वत्र विराजमान हैं,” प्रह्लाद ने उत्तर दिया। “तो क्या वे इस स्तंभ में भी हैं?” हिरण्यकशिपु गरज उठे। “हाँ, इस स्तंभ में भी भगवान का वास है,” प्रह्लाद बोला। पुत्र के उत्तर को सुन हिरण्यकशिपु ने मुट्टी बनाकर जोर से स्तंभ पर प्रहार किया। स्तंभ में दरार पड गयी। उसके भीतर से अर्ध सिह, अर्ध मानव रूप में नरसिहमूर्ति का उग्ररूप प्रकट हुआ। संध्या समय था। भगवान ने राजदरबार की देहली पर बैठकर हिरण्यकशिपु को अपने गोद में उठा लिया, और नाखूनों से उसके सीने को चीर कर उसका वध किया। निष्कलंक भक्त प्रह्लाद के मुख से निकले वचन सत्य सिद्ध हुए। इसे विग्रहाराधना का आरंभ कहा जा सकता है। एक साधारण शिलास्तंभ में ईश्वर की उपस्थिति पर विश्वास! जब वह विश्वास दृढ हुआ तो वह अनुभव में परिणत हुआ। हमें इस कथा के सार को ग्रहण करना चाहिए। सर्वशक्तिमान ईश्वर कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। वे सगुण या निर्गुण भाव अपना सकते हैं। खारे पानी से नमक निकाला जा सकता है और नमक पुनः पानी में लीन हो सकता है।

यह घटना मानव की सीमाओं को भी दर्शाती है। संसार के सर्वाधिक शक्तिमान, अतिबुद्धिशाली व्यक्ति की बुद्धि के दायरे के पार है ईश्वर की बुद्धि। मानव बुद्धि की सीमाएँ हैं। ईश्वर असीम हैं। हिरण्यकशिपु ने तो बहुत सोच-विचारकर मृत्यु से सभी प्रकार सुरक्षित रहने के लिए ही ब्रह्माजी से वर माँगा था। जब उन्हें वर प्राप्ति हुई तो उन्होंने ठान लिया कि त्रिलोकों में उनका मुकाबला करने के काबिल कोई नहीं है। परन्तु हिरण्यकशिपु एक बात में चूक गए, वे ईश्वर को नहीं समझ पाये। सभी समस्याओं का समाधान उनके पास है। न दिन न रात का समय – संध्या समय; न आकाश में, न भूमी पर – अपनी गोद में लेटाया; न भीतर न बाहर – देहली पर; न मानव न पशु – नरसिह; निरायुध – अपने नाखूनों से वध किया। इस प्रकार ब्रह्माजी के वर का किसी भी प्रकार उल्लंघन किए बिना नरसिह मूर्ति भगवान ने अधर्मी हिरण्यकशिपु का वध किया। ईश्वर मानव बुद्धि से परे हैं। उन्हें जानने का केवल एक ही मार्ग है, स्वयं अपने आप को उनमें पूर्ण अर्पित करना – पूर्ण शरणागति। मानव में अहंकारजन्य बुद्धि व विवेक बुद्धि होते हैं। विवेक बुद्धि स्पष्टदर्शी है, मालिन्य रहित बुद्धि है। वह दर्पण की तरह है। उसमें ईश्वर का स्पष्ट प्रतिबिम्ब होता है। जो अपनी बुद्धि को ईश्वर में समर्पित करते हैं केवल वे ही बुद्धि की सीमाओं को भेद पाते हैं, लाँघ पाते हैं।