तत्त्व को समझकर हमें ईश्वर भजन करना चाहिए। भिन्न देवी-देवताओं के पृथक अस्तित्व में विश्वास न रखते हुए हमें सभी भिन्न देवरूपों को उस परम सत्ता के भिन्न रूप या पक्ष मानना चाहिए। प्रेमपूर्वक ईश्वर भजन करना चाहिए। वे हमारे मन की सभी इच्छाओं को जानते हैं। तब भी उनके सम्मुख अपने हृदय की भावनाओं को प्रकट करने में कोई गलती नहीं है। परन्तु हममें यह बोध भी होना चाहिए कि वह केवल एक शुरुवात मात्र है। क्रमेण निष्काम भाव से ईश्वराराधना करना सीखना चाहिए। जब भक्ति केवल भक्ति के लिए हो तो उससे ही हमें सब कुछ मिल जाता है – भौतिक पुरोगति व आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होगी। केवल निष्कलंक प्रेम-भक्ति से ही ईश्वर साक्षात्कार संभव हैं।

 

आज मंदिरों में जाने वालों की संख्या बढ गई है। परन्तु उसके अनुरूप संस्कारों में वृद्धि हो रही है, ऐसा कहना कुछ कठिन है। इसका कारण यह है कि आज मंदिरों में हमारे संस्कार का ज्ञान देने की व्यवस्था ना के बराबर है। अतः लोग आज मंदिरों को केवल अपनी इच्छाओं की पूर्ति की एक उपाधि मानते हैं। आज मंदिरों में जानेवाले जब श्रीविग्रह के सामने अंजलि बाँधे, आँखें बन्द करके खडे होते हैं तो उनके मानस चक्षु में ईश्वर नहीं वरन् उनकी इच्छाओं की ही झलक मिलती हैं। अम्मा यह नहीं कहती की मन में इच्छा नहीं होनी चाहिए। परन्तु मन में इच्छाओं की भरमार हो तो हम शान्ति की अनुभूति नहीं कर सकते। कई लोग तो मंदिरों में इसलिए जाते हैं कि वे सोचते हैं कि यदि वे ईश्वर भजन न करें, ईश्वर को तृप्त न करें तो उनके जीवन में कठिनाईयाँ उठेंगी, दुरित होंगे। सभी प्रकार हमारी रक्षा करने वाले एक ईश्वर ही हैं। सही ईश्वर आराधना से सभी प्रकार के भय से मुक्ति मिलती है।

आज मंदिर में उपासना तत्त्वज्ञान विहीन, खोखला अनुकरण मात्र बन गया है। बेटा पिता के साथ मंदिर गया। पिता ने मंदिर की प्रदक्षिणा की तो बेटे ने भी वैसा ही किया। बेटा अपने पिता के इन सभी आचारों का अनुकरण करता ही बडा हुआ। बाद में बेटा अपने बेटे के साथ मंदिर गया। जो कुछ पहले गुजरी थी उसका पुनरावर्तन हुआ। परन्तु यदि प्रश्न उठे कि यह सब क्यों किया जा रहा है तो उसका उत्तर कोई नहीं जानता। आज मंदिरों में ऐसी व्यवस्था भी नहीं है कि लोगों की आवश्यकता को समझकर उन्हें आवश्यक ज्ञान दिया जाए।

एक व्यक्ति नित्य नियमित रूप से अपने परिवार के पूजागृह में कुलदेवता की पूजा किया करता था। एक दिन सब साज सज्जा करने के उपरान्त, जब वे पूजा के लिए बैठे तो उनकी बिल्ली ने आकर चढ़ाने के लिए रखा दूध पी लिया। अगले दिन सब तैयारी करने के बाद उस व्यक्ति ने बिल्ली को पकडकर एक टोकरी के नीचे बन्द कर दिया। पूजा के समाप्त होने पर ही उसे मुक्त किया। यह सत्य है कि उस बिल्ली में भी ईश्वर का वास है परन्तु सगुणाराधना में बाह्य शुद्धि प्रधान है। बाह्य शुद्धि ही हमें आन्तरिक शुद्धि तक ले जाती है। पूजा से पूर्व बिल्ली को टोकरी के नीचे बन्द करना एक दैनिक क्रिया बन गई। कई दिन बीत गए। एक दिन उस व्यक्ति की मृत्यु हो गई। पूजा का दायित्व पुत्र पर आया। पूजा से पूर्व बिल्ली को टोकरी के नीचे रखने की क्रिया को बेटे ने भी जारी रखा। एक दिन पूजा से पूर्व जब बिल्ली को ढूँढने लगे तो बिल्ली दिखी नहीं। तब ही उन्हें ज्ञात हुआ कि बिल्ली मर गई है। उन्होंने समय नहीं गँवाया। तुरन्त पडोस के घर से बिल्ली ले आए और फिर उसे टोकरी के नीचे बन्द करने के बाद पूजा आरंभ की।

बेटे ने इस बात को जानने की कोशिश ही नहीं की कि पिताजी बिल्ली को टोकरी के नीचे बन्द क्यों किया करते थे। जो पिताजी किया करते थे बेटे ने उसका ही अंधा अनुकरण किया। इसका कारण यह था कि वह उसपर स्वयं सोचने के लिए तैयार नहीं था। आज अधिकांश लोग इस प्रकार ही आचारों का अनुष्ठान करते हैं। उसके आन्तरिक तत्त्व को समझने का श्रम नहीं करते। जो पूर्वजों ने किया था, उसका उसी तरह, बिना समझे अनुकरण करते हैं। ऐसा नहीं करना चाहिए। हम जिस किसी धर्म के हों हमें धर्माचारों के आन्तरिक तत्त्वों को समझना चाहिए। वैसा होने पर अनाचारों का अस्तित्व बना नहीं रह सकेगा। और यदि अनाचार हों तो भी उन्हें हटाया जा सकेगा।

आध्यात्मिकता के बारे में, मंदिर में उपासना में निहित तत्त्वों के बारे में आम जनता को जानकारी देने की व्यवस्था मंदिरों से संलग्न होकर ही दी जानी चाहिए। मंदिर मानव मन में संस्कार को द्योतित करते केन्द्र बनें। ऐसा होने पर ही हम अपनी स्वर्णिम विरासत को पुनः प्राप्त कर पाएँगे।