“मैं देह हूँ” – एक असत भावना है। देह को जीवन प्रदान करने वाला है वो चेतन तत्व जो हमारा असली स्वरूप है। उदाहरण के लिए, जब तक पीटर नामक एक व्यक्ति जीवित है तब तक उसे गली में से गुज़रते देख कर लोग कहते हैं, “वो देखो पीटर जा रहा है।” किन्तु जब वे पीटर के शव को श्मशान ले जाते हुए देखते हैं तब कोई ऐसा कहता है क्या? नहीं। तब वे कहते हैं, “वो देखो,पीटर का शव जा रहा है।” क्यों? क्योंकि भीतर रहने वाला चेतन तत्व, जो देह को जीवित बनाता है, अब उसमें प्रकट नहीं हो रहा।
दुर्भाग्यवश, हम अपने जीवन का आधार इस असत भावना को मानते हैं कि, “मैं देह हूँ।” उसके बाद, हमारा जीवन तथा जीवन शैली इस असत की आधारशिला पर निर्मित होते हैं। इस प्रकार हम, इस असत भावों की श्रृंखला में, अपने असली स्वरूप को भूल ही जाते हैं। यदि आरम्भ ही गलत होगा तो फिर हम कुछ भी करें, लक्ष्य-प्राप्ति नहीं हो सकेगी। “मैं देह हूँ” – इस असत के कारण हमने सत्य को पूर्णरूपेण भुला दिया है कि “मैं आत्मा हूँ।” यह कहना कठिन होगा कि यह अज्ञान की श्रृंखला कब और कहाँ शुरू हुई, हाँ इसका अन्त तब होगा जब हम आत्मबोध को प्राप्त होंगे।
यहाँ अम्मा को एक कथा याद आ गई। एक बार एक नवयुवक संभावित वधू को देखने उसके घर गया। लड़की के पिता बहुत धनवान थे और क्योंकि लड़का कुछ घबराया सा था अतः मनोबल बढ़ाने के लिए एक मित्र को साथ ले गया था। लड़की देखने तथा लड़की के पिता के साथ कॉफ़ी, नाश्ता करने के बाद, उन दोनों ने बातचीत शुरू की।
पिता ने पूछा, “काम कैसा चल रहा है?”
युवक ने बड़ी विनम्रता के साथ कहा, “अरे, छोटा-मोटा व्यापार है। कोई दिक्कत नहीं। आराम से चल रहा है।”
जिस मित्र को वह विश्वास बढ़ाने हेतु साथ लाया था, वो बीच में बोंल पड़ा, “क्या कह रहे हो? अरे श्रीमान, आज इनकी 27 दुकानें हैं और दूसरे जिलों में और भी खोलने वाले हैं। यह तो इनकी विनम्रता है कि यह ऐसा कह रहे हैं।”
तब लड़की के पिता ने पूछा, “तुम रहते कहाँ हो?”
नवयुवक बोला, “मेरा छोटा सा अपना घर है। ”
मित्र फिर से बीच में बोंल पड़ा, “श्रीमान, यह तो इनकी विनम्रता है। शहर में सबसे बड़ा बंगला इन्हीं का है। इनके दो-तीन और घर भी निर्माणाधीन हैं।”
कारों की बात चली तो लड़की के पिता ने प्रश्न किया कि, “अभी तुम्हारे पास कौन सी कार है?”
युवक ने उत्तर दिया, “छोटी सी कार है जो मैं यदा-कदा ज़रूरत पड़ने पर इस्तेमाल करता हूँ।”
एक बार फिर, मित्र ने टोका, “श्रीमान,आज इन के पास तीन कारें हैं। तीन और विदेशी कारें खरीदने वाले हैं!”
अचानक नवयुवक खाँसने लगा तो लड़की के पिता ने पूछा, “क्यों बेटा, तुम्हें सर्दी हुई है क्या?”
युवक ने उत्तर दिया, “कुछ नहीं, दो-तीन दिन से कुछ मौसम बदलने के कारण…।”
मित्र बोला, “मौसम के कारण? क्या कह रहे हो? श्रीमान जी, इन्हें तो टी.बी. है!”
अब आप अनुमान लगा सकते हैं कि विवाह की बातचीत कहाँ संपन्न हुई होगी। इसी प्रकार की हमारी यह समस्या है। हम असत को जीते आ रहे हैं।
हमारे ऋषियों ने जीवन की तुलना एक बुलबुले से की है। वस्तुतः, यह जीवन नहीं अपितु अहम् हैं, अहम् के साथ हमारा तादात्म्य है जिसकी तुलना बुलबुले से की जानी चाहिए। अनन्त काल की प्रतीक्षा के पश्चात् हमें यह मनुष्य-जन्म प्राप्त हुआ है, इसे हमें यूँ ही बुलबुला फूट जाने के समान व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। जीवन भर, हमें सभी कर्म कुछ इस प्रकार करने चाहियें मानो एक शांतिपूर्ण मृत्यु की तैयारी चल रही हो। जन्म और मृत्यु हमारे लिए परमात्मा की देन हैं।
बच्चो, हमें इस जन्म में कोई गलत कदम नहीं उठाना। जन्म और मृत्यु हमारी चेतना के क्षेत्र के परे की वस्तु हैं। अतः, इस छोटे से जीवन काल में, सावधान रह कर, हमें सत्कर्म करने चाहियें। हमारा वर्तमान मिथ्याबोध है शरीरम् सत्यम् आत्मा मिथ्या – “शरीर सत्य और आत्मा मिथ्या है।” आत्मा का हमें विस्मरण हो गया है। बच्चो, आत्मा, सत्य को हमें कभी भूलना नहीं चाहिए। न भूलने के लिए, आध्यात्मिक ज्ञान आवश्यक है!