प्रश्नः यदि ईश्वर सर्वव्यापी हैं तो मंदिरों की क्या आवश्यकता है?

अम्माः यह सनातन धर्म की विशेषता है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के तल तक जाकर उनका उद्धार करता है। व्यक्ति भिन्न-भिन्न संस्कारों के होते हैं, सभी का एक ही स्तर नहीं होता। प्रत्येक व्यक्ति का उनके संस्कार के अनुरूप ही मार्गदर्शन किया जा सकता है। दूध पीते बच्चे को माँस खिलाएँ तो वह पचेगा नहीं। उसे तो उसकी स्थिति के अनुरूप उचित आहार ही देना चाहिए। कुछ रुग्णों को इंजेक्शन से अलर्जी होती है उन्हें दवा टिकिया के रूप में दी जाती है। इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को उनके शारीरिक व मानसिक गठन के अनुरूप मार्ग का उपदेश दिया जाना चाहिए। इस तथ्य के आधार पर ही विभिन्न संप्रदायों का उद्भव हुआ। सगुण व निर्गुण का संकल्प, भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, सभी का उद्भव इसी आधार पर है। इन सभी मार्गों का आधारभूत तथ्य नित्यानित्य विवेक ही है। अर्चना, पूजा, भजन – सभी का लक्ष्य यही है। दृष्टिहीन बच्चे को ब्रेल अक्षरों को स्पर्श करवाकर अक्षरों का ज्ञान दिया जाता है। बधिरों को संकेतों की भाषा में सिखाना पडता है। सभी को उनके तल के अनुसार ही ज्ञान दिया जा सकता है। साधारण लोगों के उद्धार के लिए मंदिरों की आवश्यकता है। इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता, मंदिरों की आवश्यकता का निषेध नहीं हो सकता।

हालाँकि वायु सर्वत्र व्याप्त है तब भी क्या पंखे के नीचे बैठने में कोई विशेषता नहीं है? वृक्ष की छाँव में अन्य स्थलों पर न पाई जानेवाली एक शीतलता होती है। वहाँ एक खास ठंडक व सुख का अनुभव होता है। इसी प्रकार जब उपाधि के माध्यम से ईश्वर की पूजा की जाती है तो उनका सान्निध्य अधिक अनुभव हो पाता है। हालाँकि सूर्यप्रकाश सर्वत्र है तब भी बन्द कमरे में प्रकाश पाने के लिए दीया जलाना पडता है। हालाँकि गाय में दूध है उसके कानों को पकडकर निचोडने से कोई फायदा नहीं है। दूध तो थन से ही मिलेगा। ईश्वर सर्वव्यापी हैं तो भी मंदिरों में विश्वास रखनेवालों को सहज ही उनका सान्निध्य अनुभव हो पाता है। परन्तु उसके लिए विश्वास का होना भी आवश्यक है। विश्वास का अर्थ है मन का ट्यूनिग, या ईश्वर के सुर से मन का सुर मिलाना। हालाँकि मंदिरों में ईश्वर सान्निध्य है तो भी अविश्वासियों को उसकी अनुभूति नहीं होगी। विश्वास से ही अनुभूति होती है।

एक बार अम्मा और यहाँ के बच्चे नृत्य का कार्यक्रम देख रहे थे। एक विदेशी दंपत्ति विदेशी नृत्य कर रहे थे। उनका हाथों में हाथ लिए यूँ नृत्य करना एक बेटी को पसन्द न आया। उस बेटी ने पूछा, “छी, यह कैसा नृत्य है? स्त्री-पुरुष साथ-साथ नृत्य कर रहे हैं!” इसपर अम्मा ने प्रश्न किया, “क्या शिव-पार्वती एक साथ नृत्य करेंगे तो तुम्हें देखते हुए लज्जा अनुभव होगी?” चूँकि हम उसे दिव्य मानते हैं, हमें उसमें कोई बुराई न दिखेगी। जब हम शिव-पार्वती कहते हैं तो उसमें एक दिव्यता आ जाती है। अतः हम उसे श्रेष्ठ मानते हैं। यह विश्वास पर ही आधारित है। चूँकि हम उस स्त्री-पुरुष में दिव्यता देख नहीं पाते हमें उनका नृत्य बुरा लगता है। अर्थात मनोभाव ही प्रधान है। विश्वास में दृढ प्रतिष्ठित रहते हुए हम यदि अग्रसर हों तो यकीनन हमें ईश्वरानुभूति होगी। विश्वास ही नींव है।

जिस मंदिर या आराधनालय में अनेक व्यक्ति एकमन हो प्रार्थना करते हैं वहाँ का वातावरण अन्य स्थलों के वातावरण से भिन्न होगा। एक मयखाने में एक ऑफीस का सा वातावरण नहीं होता। मंदिर का वातावरण मयखाने के वातावरण से भिन्न होता है। जबकि मयखाने में हम मनोबल खो बैठते हैं, एक मंदिर में हम मनोबल पाते हैं, मनोबल का विकास होता है। आराधनालय सद्विचारों के तरंगों से व्याप्त होते हैं। उस वातावरण में विचलित मन को भी कुछ शान्ति की अनुभूति हो पाती है। अतर के कारखाने की एक खासियत होती है, वहाँ का वातारण ही सुगंधित होता है। दूसरी ओर रसायन बनाने वाले कारखाने का अंतरिक्ष भिन्न होता है। मंदिरों का भक्तिभावसिक्त वातावरण, वहाँ के पावन दृश्य, सभी मन की एकाग्रता पाने में व हममें भक्तिभाव को जगाने में सहायक होते हैं। मंदिर दर्पण की तरह हैं। निर्मल दर्पण में हम अपने मुख पर लगे मैल को स्पष्ट देख पाते हैं और अतः उसे साफ भी कर पाते हैं। हमारे हृदयमालिन्यों के निवारण में मंदिर सहायक हैं।