प्रश्न— सद्गरु, बुद्धि की तुलना में हृदय को ज़्यादा महत्व देते हैं। पर क्या बुद्धि ज़्यादा महत्वपूर्ण नहीं है? बुद्धि के बिना लक्ष्य प्राप्ति कैसे होगी?
अम्मा— बुद्धि आवश्यक है। अम्मा ने यह कभी नहीं कहा कि बुद्धि की आवश्यकता नहीं है। परन्तु जब एक भला कार्य करने का अवसर आता है, तब बुद्धि साथ नहीं देती। विवेक बुद्धि के बजाय, स्वार्थ आगे आ जाता है। हृदय और बुद्धि दो अलग चीज़ें नहीं है। जब तुममे विवेक बुद्धि होगी, तब स्वाभाविक तौर पर तुम अधिक उदार और विशाल हृदय होगे। उस विशालता से निश्छलता, सहयोगिता, विनम्रता और सहभागिता अपने आप पैदा होगी।
हृदय शब्द ही उदारता का, विशालता का सूचक है। हृदय शब्द से ही हमें सुखद कोमलता का अहसास होता है। परन्तु अधिकांश लोगों में, हम स्वार्थ बुद्धि ही पाते हैं, विवेकपूर्ण बुद्धि नहीं। वास्तव मे वह बुद्धि नहीं, अहंकार है। और जैसे जैसे अहंकार बढ़ता है, व्यक्ति संकुचित व स्वार्थी होता जाता है। सहभागिता की भावना लुप्त होती जाती है। अंततः इससे व्यक्ति व समाज का अहित होता है। हमें स्मरण रहना चाहिये कि उदारता एवं विशाल हृदय के बिना काम नहीं चल सकता, न आध्यात्मिक जीवन में और न ही संसार में।
बेटा, अम्मा तुमसे कुछ पूछना चाहती है। मानो कि तुम अपने परिवार में कुछ नियम लागू करना चाहते हो — कि ‘मेरी पत्नी को इस तरह रहना चाहिये, इस तरह बात करनी चाहिये, ऐसा व्यवहार करना चाहिये, क्योंकि वह मेरी पत्नी है।’ अगर तुम इन नियमों को लागू करने की ज़िद्द करोगे, तो क्या घर में शांति रहेगी? नहीं। इसी तरह मानो कि तुम ऑफिस से घर आते हो और किसी से बात किये बिना, सीधे अपने कमरे में जाकर ऑफिस का काम करने लगते हो, जैसे कि घर मे भी तुम ऑफिसर ही हो। तो क्या तुम्हारा परिवार खुश होगा? अगर तुम कहो कि, ‘मेरा तो यही तरीका है।’ तो क्या वे लोग मान जायेंगे? क्या घर मे शांति रहेगी?
और इसके बजाय, अगर तुम घर में घुसते ही पत्नी से भली प्रकार हालचाल पूछो और बच्चों के साथ कुछ समय बिताओ, अर्थात् केवल स्वयं में सीमित न रहो और दूसरों को भी कुछ अपनापन दे सको, तो सभी ख़ुश होंगे। जब हम एक दूसरे की कमियाँ व दोष स्वीकार करेंगे और उन्हें क्षमा करेंगे, तभी घर में सुख शांति रहेगी। प्रेम के कारण ही तुम अपने जीवनसाथी की गलतियाँ नज़रअंदाज़ कर पाते हो। प्रिय व्यक्ति गलतियाँ करे तो भी तुम उससे प्रेम करते हो। इस मामले में क्या तुम दिल को ज़्यादा महत्व नहीं देते? क्या तुम दोनों को नहीं लगता कि हमारे दिल एक हैं? और इसी कारण तुम साथ—साथ जीवन बिता पाते हो। इसी दृष्टि को अम्मा ‘हृदय’ कहती है।
एक सूची बनाकर उसके अनुसार बच्चों पर नियम चलाना, क्या व्यावहारिक होगा? और क्या बच्चे इसे मानेंगे? नहीं! हमारे प्यार के कारण ही हम उनकी गलतियाँ सहन करते हैं और उनका पालन पोष्ण ठीक से करते हैं। यहाँ भी बुद्धि के बजाय, हृदय का ही ज़्यादा महत्व है — है ना? जब ऐसा होता है, तो बच्चों के साथ बिताया हर क्षण आनंददायक होता है। परिवार में जब लोगो के दिल, एक दूसरे के प्रति खुले होते हैं, तभी पारिवारिक जीवन में आनंद आता है। यदि बुद्धि को हृदय पर हावी होने दिया जाये तो जीवन में कोई आनंद शेष नहीं रह जायेगा। हम बु्द्धि का उपयोग बाज़ार या कार्यस्थल पर कर सकते हैं क्योंकि वहाँ इसकी ज़रूरत होती है। परन्तु परिवार में ऐसा नहीं चलेगा। कार्यालय में भी कुछ खुलापन और कुछ समझौता आवश्यक है, नहीं तो वहाँ भी केवल मनमुटाव और कड़वाहट ही रह जायेगी।
जब हम अपने जीवन में, हृदय को पहला स्थान देते हैं तो जीवन में एक लचीलापन, एक सहभागिता की दृष्टि पैदा हो जाती है। विवेक बुद्धि के साथ, खुलापन, सहभागिता व निभाने का भाव, स्वाभाविक रूप से आ जाते हैं। परंतु आज लोगों की बुद्धि बिल्कुल ही स्वार्थपरक एवं आत्मकेन्द्रित हो गई है एवं विवेक शक्ति सो गई है।
लोगों के जीवन में यह एक भारी कमी है। परस्पर सहयोग के बिना समाज का विकास संभव नहीं है। सहभागिता की भावना से समाज में शांति आती है। जैसे एक जंग खाई मशीन को चलाने के लिये, ग्रीस की ज़्ररूरत होती है, वैसे ही जीवन में उन्नति के लिये विनम्रता और सहभागिता ज़रूरी है। पर ये गुण हममें तभी पैदा होंगे जब हम हृदय का विकास करेंगे। ऐसी परिस्थितियाँ होती हैं जहाँ बुद्धि आवश्यक है, परन्तु इसे वहीं तक सीमित रखा जाना चाहिये। दूसरी और, जहाँ हृदय को प्राथमिकता देना ज़रूरी हो, वहाँ हमें चूकना नहीं चाहिये।
जब तुम एक मकान बनाते हो, तो नींव जितनी गहरी होगी, उतना ही अधिक ऊँचा मकान बना सकते हो। हमारे हृदय की विशालता और विनम्रता, हमारी उन्नति की नींव के समान है। जब हम जीवन में हृदय को प्राथमिकता देते हैं, हमारे भीतर विनम्रता और सहभागिता विकसित होती है। हमारे संबंध सकारात्मक और शांतिमय बन जाते हैं।
आध्यात्मिक लक्ष्य पाने के लिये, हृदय का विकास ज़रूरी है। विशाल हृदय वाले ही प्रभु को पा सकते हैं। आत्मा, तर्क और बुद्धि के परे है। कितनी ही शक्कर खाओ, पर तुम इसकी मिठास, उसे नहीं समझा सकते जिसने कभी शक्कर नहीं खाई हो। अनंत प्रकाश को शब्द परिभाषित नहीं कर सकते, एक फूल की सुगंध नापी नहीं जा सकती। इसी प्रकार आत्मज्ञान शब्दों से परे है— वह एक अनुभव है। बुद्धि के परे, हृदय में उतरे बिना, तुम आत्मज्ञान का स्वाद नहीं पा सकोगे।
एक गरीब किसान की कहानी है। वह अपनी झोंपड़ी के बाहर खड़ा था कि कुछ लोग वहाँ से गुज़रे। उसने पूछा तो ज्ञात हुआ कि वे भगवद्गीता पर तीन दिवसीय प्रवचन सुनने जा रहे हैं। किसान भी प्रवचन सुनना चाहता था, वह भी साथ हो लिया। जब वह स्थल पर पहुँचा, तो वहाँ भारी भीड़ थी।
वहाँ आने वाले लोग संपन्न थे, महंगे सुंदर वस्त्र धारण किये हुए थे। गरीब किसान के फटे पुराने वस्त्रों के कारण उसे सभागृह में प्रवेश नहीं मिला। उसने प्रार्थना की, ‘हे भगवान, मैं यहाँ आपकी कथा सुनने आया था, पर लोग मुझे अंदर नहीं जाने दे रहे हैं। क्या मैं इतना गया—बीता हूँ कि आपकी कथा सुनने योग्य भी नहीं हूँ? प्रभु आपकी यही इच्छा है तो यही सही। मैं बाहर बैठकर ही कथा सुनूँगा’। और वह एक आम के वृक्ष के नीचे बैठकर कथा सुनने लगा, जो स्पीकर के जरिये सुनाई दे रही थी। पर उसकी समझ में कुछ नहीं आया, क्योंकि कथा संस्कृत में हो रही थी। किसान का दिल टूट गया। वह बोला— ‘हे भगवान मैं तो तुम्हारी भाषा भी नहीं समझ सकता। क्या मैं इतना पापी हूँ?’ उसी वक्त उसकी नज़र एक बड़े पोस्टर पर पड़ी जो हॉल के बाहर लगा हुआ था। चित्र में कृष्ण एक हाथ में रथकी लगाम थामे बैठे अर्जुन की ओर मुख करके, भगवत्गीता का उपदेश दे रहे थे। किसान एक टक प्रभु का मुख मंडल निहारता रहा। उसकी आँखों में आँसू भर आये। उसे पता ही नहीं चला, कि वह कब तक चित्र देखता रहा। जब प्रवचन समाप्त हुआ, लोग जाने लगे, तब वह भी घर लौट गया। दूसरे दिन वह फिर वहाँ आया — वह प्रभु का चेहरा भूल नहीं पा रहा था। उसे एक ही लगन थी कि वहाँ बैठा रहे और चित्र निहारता रहे। तीसरे दिन वह फिर आया और वृक्ष के नीचे बैठकर एकटक चित्र देखता रहा। उसकी आँखो से आँसु झरते रहे। उसे प्रभु का रूप अपने अंदर चमकता हुआ अनुभव हुआ। वह आँखे बंद किये हुए, प्रभु में लीन, आत्मविस्मरण अवस्था में बैठा रहा।
कथा समाप्त हो गई, भीड़ अपने घर चली गई। प्रवचन कर्ता विद्वान जब बाहर आये, तो किसान को निश्चल रूप से वृक्ष के नीचे बैठा हुआ देखा। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। विद्वान आश्चर्य चकित हो गये! उन्होंने सोचा, ‘प्रवचन समाप्त होने के बाद भी यह व्यक्ति यहाँ क्यों बैठा हुआ है? क्या मेरे प्रवचन का इस पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा?’ वह किसान के पास गया। किसान तब भी स्थिर व शांत बैठा था। उसके चेहरे से स्पष्ट था कि वह आनंदातिरेक की अवस्था में है। उसके आस—पास गहन शांति थी। विद्वान ने किसान को हिलाकर पूछा, ‘क्या तुम्हें मेरा प्रवचन इतना अच्छा लगा?’
किसान ने कहा— ‘नहीं, मुझे तो कुछ भी समझ में नहीं आया, मुझे संस्कृत नहीं आती। पर जब मैं भगवान की स्थिति पर विचार करता हूँ, तो मैं दुःख से भर जाता हूँ। क्या भगवान ने इतना सब कुछ, पीछे दे्खते हुए कहा? उनके तो कंधे दुःखने लगे होंगे। इसीलिये मैं रो रहा हूँ।’ कहते हैं जब किसान ने यह कहा— उसी क्षण उसे दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया। करुणामय हृदय और भोलेपन के कारण ही वह किसान, आत्मज्ञान का अधिकारी बना। किसान की बातें सुनते समय विद्वान की भी आंखें भर आर्इं, उसे ऐसी शांति अनुभव हुई, जो पहले कभी नहीं हुई थी।
प्रवचनकारी प्रकांड विद्वान थे, श्रोताग्ण भी काफी पढ़े लिेखे, परंतु वह निर्धन भोला किसान ही था, जो भक्ति की मधुरता का स्वाद पा सका। वह आत्मज्ञान पाने का अधिकारी था। वह निेःस्वार्थ करुणा का मूर्तरूप था। उसका दुःख अपने स्वयं के बारे में नहीं था, वरन् उसे प्रभु का कष्ट अनुभव हो रहा था। लोग जब मंदिर जाते हैं तो वे प्रार्थंना में कहते हैं ‘प्रभु, मुझे यह दो, मुझे वह दो।’ परन्तु किसान की भावना इन बातों से परे थी। उसमें कोई अहंकार नहीं था। साधारणतया अहंकार से मुक्ति पाना बहुत कठिन होता है, पर सरल स्वभाव व भोलेपन में वह अपना पृथक व्यक्तित्व भूल गया। उसे पराभक्ति का अनुभव हुआ जो सर्वर्श्रेष्ठ अवस्था है। वह उसका अधिकारी था क्योंकि जब दूसरे अपनी बुध्धि से काम ले रहे थे, वह अपने हृदय की भावनाओं में डूबा हुआ था। फलस्वरूप वह निष्प्रयास, स्वतःस्फूर्त आनंदावस्था में लीनहो गया और उसके आस—पास शांति की तरंगें प्रवाहित होने लगीं। हमें भी अपने हृदय में ईश्वर को पाने का प्रयास करना चाहिये, क्योंकि वह वहीं शोभायमान हैं।
अम्मा का शब्द प्रवाह ધીमा हुआ व मौन के सागर में विलीन हो गया। उनकी आँखें जो आनंदाश्रु से भरी थी धीरे—धीरे बंद हो गई। करुणामय मुख, आँसुओं से नम हो रहा था । कुछ भक्त आस—पास बैठे थे। सब निस्तब्द्ध थे, मौन थे। मार्क, ध्यान में आँखे बंद किये हुए था। सभी अम्मा के आस—पास मौन होकर बैठ गये। उस दिव्य आनंद के वातावरण में विचार शांत हो गये— मन दिव्य शांति में लीन हो गये।