श्री माता अमृतानन्दमयी देवी का अय्यप्पा भक्त समागम को सम्बोधन 
२० जनवरी,२०१९ ,अय्यप्पा भक्त समागम, पुत्तरीकंडम मैदान, तिरुवनन्तपुरम 

“अय्यप्पा शास्तावे की जय… 
शरणम अय्यपा स्वामिये की जय…।” 


“प्रेम-स्वरुप,आत्मस्वरूप, यहाँ उपस्थित सभी को प्रणाम!

जिन आचार्यों ने अम्मा को इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया, उन्हें भी प्रणाम।

शबरीमला मंदिर से सम्बन्धित हाल ही की घटनाएँ अति दुर्भाग्यपूर्ण रही हैं। मन्दिर के आधारभूत तत्त्व व मंदिरों में की जानेवाली पूजा इत्यादि का यथेष्ट ज्ञान न होना ही समस्या का मूल कारण है। प्रत्येक मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के समय किये जानेवाला संकल्प भिन्न हैं, उस की उपेक्षा करना अनुचित है। मंदिर में की जानेवाली पूजा और विधि-विधानों के विषय में प्रवेश करने से पूर्व मंदिर में प्रतिष्ठित देवी-देवता और सर्वव्यापी ईश्वर में अंतर समझना चाहिए। सर्वव्यापी ईश्वर की कोई सीमायें नहीं हैं, न स्त्री-पुरुष का भेद है, वह सर्वत्र व्याप्त अनंत शक्ति है। परन्तु मंदिर के देवी देवताओं की बात अलग है।

समुद्र में रहने वाली मछली और घर के फ़िश-टैंक में पलने वाली मछली में अन्तर है। फ़िश-टैंक में पाली जाने वाली मछली को तो हमें दाना, ऑक्सीजन देना पड़ता है,पानी बदलते रहना पड़ता है। लेकिन समुद्र में रहने वाली मछली को इन सब की ज़रूरत नहीं पड़ती। नदी में स्नान करना हो तो हमें किन्हीं विशेष नियमों का पालन नहीं करना पड़ता लेकिन उसी नदी के पानी को एक स्विमिंग पूल में उपयोग करें तो उसे फ़िल्टर करना पड़ेगा, उसमें क्लोरीन मिलानी पड़ेगी। उसी स्विमिंग पूल में उतरने से पहले हमें अलग से स्नान करना पड़ता है, ख़ास स्विमिंग-सूट पहनना पड़ता है। स्विमिंग पूल में नहाने के साबुन का इस्तेमाल भी वर्जित होता है। हालाँकि स्विमिंग पूल में नदी का ही पानी है, फिर भी वहाँ नियम अलग हो जाते हैं। उसी प्रकार, यद्यपि मंदिर में स्थापित देवी-देवता उसी सर्वव्यापी ईश्वर के ही अंश हैं, तथापि मंदिर में शुद्धि-अशुद्धि का ख्याल रखना व आचार अनुष्ठानों का पालन करना आवश्यक है।

भक्त का जैसा भाव होता है तदनुरूप उसे फल मिलता है। बीज बोने के बाद आवश्यक खाद पानी देने पर ही फल फूल, सब्जी मिलते हैं। इसी तरह मंदिर के प्रत्येक देवता की पूजा नियमित समय पर होनी चाहिए, उनको नैवेद्य चढ़ाना चाहिए, मंदिर में शुद्धता का ध्यान रखना चाहिए और आचारों, अनुष्ठानों का पालन किया जाना चाहिए। किन्तु सर्वव्यापी ईश्वर की उपासना में ऐसे विधि-विधानों का प्रतिबन्ध नहीं होता। 

प्रत्येक मंदिर में प्रत्येक देवता का आधारभूत संकल्प भिन्न होता है। उदाहरण के लिए, किसी मंदिर में रौद्र-भाव में प्रतिष्ठित देवी की उपासना का विधान होता है तो किसी दूसरे मंदिर में शान्त भाव में प्रतिष्ठित देवी की उपासना का। तदनुसार पूजा, आचार, उपचार, शुद्धि अशुद्धि का विधान होता है। अतः परंपरागत रूप से चले आ रहे इन आचारों और अनुष्ठानों का सही पालन न किया जाए, तो यह मंदिर के वातावरण व शुद्धता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा।  


मंदिरों में पूजित देवी देवताओं को अल्पवयस्क(माइनर) माना गया है। जिस प्रकार किसी बच्चे को माता-पिता और अध्यापकों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार देवता को भी तंत्रियों (केरल में शास्त्र अनुसार पूजा विधान का निर्धारण व प्रतिष्ठा कर्म करनेवालों को तंत्री कहते हैं), पुजारियों  और भक्तों की आवश्यकता होती है। कोई नास्तिक मंदिर जाये तो चूंकि वह उन विश्वासों की कदर नहीं करता वह वहाँ थूक दे या मूत्र मल विसर्जन ही कर दे, अतः मंदिरों की पवित्रता भक्तों पर आश्रित है। 

शबरीमला अय्यप्पन नैष्ठिक ब्रह्मचारी थे। ऐसी मान्यता है कि शबरीमला मंदिर से जुड़े व्रत अनुष्ठान उनकी महासमाधी में प्रवेश करने से पूर्व उनकी अंतिम इच्छा के अनुरूप है। बदलते समय के साथ परिवर्तन लाना आवश्यक ज़रूर है, लेकिन अगर हम मन्दिरों के तत्त्वों का विस्मरण कर परिवर्तन लाने लगेंगे तो हमारे मूलभूत संस्कारों की हानि होने का डर है। (मलयालम में एक कहावत है कि) ‘बच्चे को बारम्बार इतना न नहलाओ कि बच्चा ही न रह जाये’ अर्थात परिवर्तन इस प्रकार न हो कि मूलभूत आधार ही मिट जाये।


श्री शंकराचार्य, श्री नारायण गुरु और श्री चट्टंबी स्वामिगल – इन सब महात्माओं ने अद्वैत सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। किन्तु उस उच्चतम स्थिति को प्राप्त होने के पश्चात् भी उन्होंने मन्दिरों की प्रतिष्ठा की और उनमें प्रतिष्ठित देवी देवताओं के पूजन हेतु विधि-विधानों का निर्धारण भी किया। प्रत्येक मंदिर के अपने आचार होते हैं। कई बार मुझे इन मन्दिरों में आमन्त्रित किया गया और मैं वहाँ गई भी हूँ। ऐसे कई शिव-मन्दिरों में अम्मा को परम्परानुसार केवल तीन-चौथाई परिक्रमा कर के लौटने को कहा गया(उसमें निहित विश्वास ये है कि शिव असीम अनंत हैं अतः किसी दायरे में सीमित नहीं किये जा सकते) और उन विधि-विधानों का आदर करते हुए अम्मा ने वैसा ही किया। 

ब्रह्मस्थान मंदिरों की प्राण-प्रतिष्ठा के पूर्व अम्मा ने भी तत्कालीन आचार्यों व तंत्रियों से विचार-विमर्श किया था। जब अम्मा ने अपने कुछ ब्रह्मचारियों को संन्यास दीक्षा भी देनी थी तो उन्होंने इसके लिए परंपरा अनुसार सन्यास ग्रहण किये एक संन्यासी को आमन्त्रित कर, शास्त्रविदित विधि-विधान का पालन करते हुए ऐसा करवाया, आचारों का उल्लंघन नहीं किया। मंदिर हमारी संस्कृति के आधार स्तम्भ हैं। उनकी संरक्षा करना अनिवार्य है अन्यथा समय के साथ समाज किसी कटी पतंग की तरह दिशाहीन हो जाएगा।  मन्नारशाला मंदिर की (केरल का एक विख्यात मंदिर) परम्परा के अनुसार केवल एक महिला ही वहाँ की पुजारी हो सकती है। कई स्थानों पर स्कूल या कॉलेज केवल लड़कों या लड़कियों के लिए ही बने होते हैं, पर इसको लिंग भेद या लैंगिक असमानता तो नहीं कहा जा सकता। एक विशेष वय तक की बच्चियाँ व विशेष आयु से ऊपर की महिलाओं को शबरीमला जाने की अनुमति है अतः यह कहना ठीक न होगा कि वहाँ महिलाओं की अवज्ञा होती है।


छोटे बच्चों से कहा जाता है कि,”झूठ बोलोगे तो अंधे हो जाओगे” या “तुम्हारी नाक लम्बी हो जाएगी”। कहीं यह सच होता तो आज हम सभी अंधे होते, हमारी नाक बहुत लम्बी होती! परन्तु बाल्यावस्था में जब बच्चा विवेकहीन होता है, सही गलत में भेद नहीं कर पाता तब ऐसी चेतावनियों से उसे लाभ होता है। यह व्यावहारिक तरीका है।
एक बार एक छोटे बच्चे ने चित्र बना कर अपने पिता को दिखाया और कहा, “पिताजी, देखो मैंने हाथी बनाया!” पिताजी ने सरसरी नज़र डाली तो कुछ आडी-टेढ़ी रेखाएँ खींची हुई देखीं और वो बोले, “हाथी कहाँ है? मुझे तो ऐसा कुछ नज़र नहीं आता!”  इसपर बच्चा फूट-फूट कर रोने लगा, और घर की एक-एक चीज़ को उठाकर फेंकने लगा, कितना भी मनाने पर वो शांत नहीं हुआ। आखिर में पिताजी बोले, “अरे! मेरी आँखें कमज़ोर हैं न, इसलिए ठीक से दिखाई नहीं दिया! अब मैंने चश्मा लगा कर देखा है, कितना सुन्दर हाथी बनाया है तुमने!” यह सुनकर बच्चा बहुत खुश हो गया। यह हृदय की भाषा है। अर्थात हमें श्रोता को समझकर उसके तल तक उतरना चाहिए, यहाँ केवल बुद्धि काम नहीं देती। मंदिर सोपान हैं|सीढ़ियों से चढ़कर छत पर पहुँचने के बाद हम यह समझ जाते हैं कि छत और सीढ़ियाँ समान वस्तुओं से बनी हैं – सीमेंट, रोड़ी, रेत, इत्यादि से| परन्तु यह समझने के उपरान्त भी हम सीढ़ियों को नकार नहीं सकते। छत तक पहुँचने के लिए सीढ़ियों की आवश्यकता बनी रहती है। हालांकि हमें अनुभव हो कि यह विविध नाम-रूप ईश्वर ही हैं तब भी, इस विचार से कि औरों को भी इस तल तक उठना है, हम सीढ़ियों को नकारेंगे नहीं, उनमें, सब में उस ईश्वर के दर्शन करेंगे। इसी प्रकार आचार अनुष्ठानों के तिरस्कार से हमारी संस्कृति नष्ट होगी।


गत पंद्रह वर्षों में अम्मा ने एक छोटा सा अनुसन्धान किया। शबरीमला दर्शनों के दिनों में, अम्मा ने पंद्रह वर्ष, वहाँ के हर अस्पताल में लोगों को भेजा। पता चला कि शबरीमला यात्रा अवधि के दौरान लगभग सभी अस्पतालों में आने वाले रोगियों की संख्या में 30 से 40 प्रतिशत तक की गिरावट आ जाती है। कदाचित इसका कारण यह हो कि उन महीनों के दौरान पुरुष शराब नहीं पीते, मांस नहीं खाते, अपनी पत्नी से गाली-गलोच नहीं करते, और सपरिवार व्रत का अनुष्ठान करते हैं, पूजा-पाठ करते हैं। इस तरह समाज के कितने ही परिवारों में शारीरिक एवं मानसिक संतुलन लाने में मंदिर मददगार हैं। इसीलिए इन आचार परम्पराओं की संरक्षा करना हमारी आवश्यकता है। हमारी सभ्यता की यही नीव भी है और आधार भी।


जब अर्जुन ने भगवान कृष्ण से युद्ध-नीति जाननी चाही तो श्रीकृष्ण ने उससे भीष्म से पूछने को कहा। (ऐसा नहीं था की भगवान नहीं बता सकते थे परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से भीष्म ही अधिकारी थे।)  इस विषय-विशेष में, शबरीमला के भक्त तंत्रियों व पुजारियों तथा आप जैसे श्रद्धालु भक्तों को साथ बैठ कर चर्चा करनी चाहिए और एक निष्कर्ष तक पहुँचना चाहिए। मलयालम में एक कहावत है: “धीमे-धीमे खाते रहो तो आप ताड़ का पूरा पेड़ भी खा सकते हो!” इससे अधिक मुझे कुछ नहीं कहना, मुझसे पूर्व भी कई लोग अधिकतर वो सब कह चुके हैं जो इस विषय पर कहा जाना चाहिए।
ॐ नमः शिवाय