अर्जुन एवं कृष्ण गाढ़ मित्रों की भाँति साथ-साथ खेलते-कूदते बड़े हुए। उस समय भगवान् गीतोपदेश नहीं देते थे। परन्तु कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में जब अर्जुन पूर्णतः उद्विग्न हो गया और उसके भीतर का शिष्य जाग उठा, तब अर्जुन ने अपने सारथी-सखा कृष्ण को गुरु रूप में स्वीकार किया। अर्जुन के भीतर शिष्यत्व के जागने पर ही कृष्ण ने उसे गीता का उपदेश दिया। इसमें हम सबके लिए एक शिक्षा छिपी है। हमें अपने भीतर एक शिष्य का भाव जागृत करना है। शिष्य-भाव से अभिप्राय है – पूर्ण समर्पण। वास्तव में, यदि हम यह कर सकें तो हम सहसा पाएंगे कि विश्व की प्रत्येक वस्तु हमारी गुरु हो गई है। प्रत्येक अनुभव हमें शिक्षा देने के लिए आता है। इसके विपरीत, इस भाव के अभाव में हम कुछ नहीं सीख पाएंगे, भले कुछ भी हो जाए।
अम्मा को ज्ञात है कि आप सबको ढेरों चिंताएं हैं। परन्तु स्मरण रहे कि कटे हुए हाथ को देख-देख कर रोने से कुछ नहीं होगा। घाव की मरहम-पट्टी की आवश्यकता है ताकि संक्रमण न हो। परन्तु सोच में पड़े रहना, चिंता करते रहना हमारा स्वभाव ही हो गया है। तनाव हमारे मन को ही नहीं अपितु शरीर पर भी प्रभाव डालता है, बहुत से रोग लगा देता है। तनावग्रस्त लोगों को दैहिक रोग अधिक सताते हैं।
समर्पण तनाव-मुक्ति का एकमात्र साधन है। सब कुछ परमात्मा को समर्पित कर देने से हमारा बोझ कम हो जाता है। सच तो यही है कि होनी हमारे वश में नहीं-अगली साँस तक हमारे वश के बाहर की बात है। इस ज्ञान के साथ हम अपने सभी कर्म कर, उन्हें ईश्वर को अर्पित कर दें, परन्तु कर्तृत्व न लें। हमारा भाव यह रहे कि हम सब कर्म उसकी कृपा से कर रहे हैं। कर्म को पूजा मान कर करें। यही समर्पण का भाव हमें विकसित करना होगा।
परमात्मा हम सबके भीतर आत्मा के रूप में वास करता है। प्रतिक्षण वो हमें सरल, मधुर शब्दों द्वारा राह दिखलाता है। परन्तु दुर्भाग्य! कि हम में सुनने का धैर्य ही नहीं, हम उसकी कही बात को सुनते ही नहीं। तभी तो हम बारम्बार गलतियों को दोहराते रहते हैं और फिर दुःख पाते हैं। हमें शिष्यत्व के एक आवश्यक गुण – आज्ञा पालन – को विकसित करना चाहिए। जब यह भाव जागृत हो जाता है, जब हम ध्यान से सुनने को, श्रद्धा तथा विनम्रतापूर्वक उसके शरणागत होते हैं तब ही वो गुरु बन कर हमारा मार्गदर्शन करने का दायित्व लेता है। जैसा कि अर्जुन के साथ हुआ।
समर्पण की बात चले तो मन में राधा का विचार आता है। जब कृष्ण वृन्दावन छोड़ कर मथुरा गए तो वो राधा अथवा किसी गोपी को साथ नहीं ले गए थे। अतः वे सब अति-निराश हो गईं। एक बार जब उद्धव मथुरा से आये तो राधा से मिल कर बोले कि, “सभी गोपियों ने कृष्ण के लिए अपने सन्देश में पूछा है कि अब वो मथुरावासी ही हो जायेंगे अथवा उन्हें भी वहां बुला लेंगे? तुमने मुझे कृष्ण के लिए ऐसा कोई सन्देश क्यों नहीं दिया?”
राधा ने उत्तर दिया, “जब घर का स्वामी बाहर जाता है तो या तो वो दास को साथ ले जाता है या नहीं ले जाता। यदि न ले जाए तो इसमें दास क्या करता है? घर की चाकरी करते हुए स्वामी के लौट आने की प्रतीक्षा करता है। मैन कृष्ण की दासी हूँ, अतः उन्हें अधिकार है कि मुझे साथ ले जाएँ अथवा यहाँ छोड़ जाएँ। वो मुझे साथ ले जाते तो मेरे लिए इससे बढ़ कर कोई सुख न होता। परन्तु वो मुझे साथ नहीं ले गए, इसका मुझे कोई दुःख भी नहीं। मेरे हृदय में जो उनके प्रेम की ज्योति है, मैं उसे दुःख से मन्द नहीं पड़ने दूँगी। मैं उनकी प्रतीक्षा करूंगी, मंदिर को बुहारूंगी और अपने प्रेम की ज्योति से प्रकाशित रखूंगी। दासी होने के नाते यह मेरा कर्तव्य है। इसीलिये मेरा कृष्ण के लिए कोई विशेष सन्देश नहीं है।”
हमारा भी परमात्मा के प्रति इस प्रकार का राधा-भाव होना चाहिए। यही एक सच्चे भक्त का, दास का भाव है! इसी भाव से हम आत्मबोध की प्राप्ति कर सकते हैं।