ईश्वराधना का प्रथम सोपान है मंदिर में आराधना। ईश्वर की आराधना करने में व उनसे एक व्यक्तिगत संबन्ध स्थापित करने में मंदिर व वहाँ का देवविग्रह – सारूप ईश्वर, सहायक होते हैं। परन्तु हमें क्रमेण सर्वत्र ईश्वर चैतन्य के दर्शन कर पाने की क्षमता को विकसित करना चाहिए। मंदिर में सही भाव से उपासना के माध्यम से यह संभव है। और मंदिरों में उपासना का लक्ष्य भी यही है। बचपन में हम बच्चों को तोते-मैने के चित्र दिखाकर उन्हें सिखाते हैं, “यह तोता है। यह मैना है।” जब वे बडे हो जाते हैं तो तोते, मैने में भेद करने के लिए उन्हें उन चित्रों की आवश्यकता नहीं पडती। परन्तु आरंभ में उसकी आवश्यकता थी। वास्तव में सभी ईश्वर ही हैं। किसी का भी निषेध नहीं हो सकता, इस मायने में किसी को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। घर में दूसरी मंजिल को जाती सीढियाँ व दूसरी अट्टालिका भी उसी पत्थर, रेत और सीमेन्ट से बना है। परन्तु हमें उसका भान तभी होता है जब हम दूसरी मंजिल पर पहुँच जाते है। वहाँ तक पहुँचने के लिए तो सीढयों की आवश्यकता पडती है। मंदिरों का भी यही प्रयोजन है।
कहते हैं कि मंदिरों में जन्म तो ले सकते हैं परन्तु वहाँ मरना नहीं चाहिए। ईश्वरान्वेषण में मंदिरों को उपाधि बना सकते हैं परन्तु उससे सिमट कर उसी तक सीमित नहीं रहना चाहिए। सभी बंधनों से मोचन ही व्यक्ति को पूर्ण स्वतंत्र बनाता है। ऐसी अवधारणा नहीं बना लेनी चाहिए कि ईश्वर केवल मंदिर में ही हैं। सृष्टि में सब कुछ चैतन्य स्वरूप है, जडवस्तु तो है ही नहीं। मंदिर उपासना के माध्यम से सभी में उस चैतन्य के दर्शन करके सभी से प्रेमपूर्वक व्यवहार करना, व सभी की सेवा करने के भाव को अर्जित करना चाहिए। यही सभी को स्वीकार करने का मनोभाव है। तुम और तुम्हारे चतुर्दिक फैला हुआ संसार सभी ईश्वर हैं, यही ज्ञेय है। सभी में एकत्व दर्शन करना, अपनी ही तरह सभी को देख पाने का भाव विकसित करना चाहिए। जब हम सभी में ईश्वर दर्शन करते हैं तब हम घृणा करें, तो किससे करें? मंदिर में उपासना और उससे जुडे आचारों का लक्ष्य व्यक्ति को इस तल तक पहुँचाना है।
सागर और उसकी लहरें देखने में भिन्न लगें पर दोनों पानी ही हैं। माला, कंगन, अंगूठी, नूपुर – सभी दिखने में भिन्न लग सकते हैं। इन आभूषणों को शरीर के भिन्न अवयवों में धारण किया जाता है। पर वे सभी स्वर्ण ही तो हैं। जब हम स्वर्ण के तल से देखते हैं तो सभी एक हैं, उनमें कोई भेद नहीं है। परन्तु जब हम उसके बाह्य आकार को देखें तो वे भिन्न हैं। इसी तरह हमें सभी व्यक्ति बाह्य रूप से भिन्न प्रतीत होते हैं हालाँकि वे तत्त्वतः एक हैं – ब्रह्म। केवल वही एक सत्ता है। इसको अनुभवसिद्ध करना ही मानव जीवन का लक्ष्य है। जैसे सूर्योदय होने पर अंधकार मिट जाता है उसी तरह यह अनुभूति पाने पर व्यक्ति की सभी समस्याओं का अंत हो जाता है। आज आधुनिक शास्त्रज्ञ भी कहते हैं कि ‘सब ऊर्जा के ही भिन्न रूप हैं’। ऋषियों ने एक कदम आगे रखते हुए घोषणा की कि सभी चैतन्यरूप है – ‘सर्वं ब्रह्ममयम्’ था उनका अनुभव।
हम यदि इस सत्य का अनुभव पाना चाहते हैं तो हमें इस विश्वास का अतिक्रमण करना होगा कि ईश्वर केवल मंदिर के विग्रह तक ही सीमित हैं। सभी में उस चैतन्य का दर्शन कर पाना चाहिए। इसके लिए तत्त्व को समझकर मंदिर में उपासना करनी चाहिए। वास्तव में हमारे भीतर ही वास करते आत्मचैतन्य की ही हमें उपासना करनी चाहिए। चूँकि यह साधारण व्यक्ति के लिए कठिन है, इसीलिए जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब देखते हैं, वैसे ही हम इस चैतन्य को मंदिर के ईश्वरविग्रह में देख कर उसकी आराधना करते हैं। मंदिर में आराधना के माध्यम से हमें अपने भीतर मंदिर का निर्माण करना है। फिर हम सर्वत्र ईश्वर दर्शन कर पायेंगे। मंदिर में आराधना का आधारभूत लक्ष्य यह होना चाहिए। हम गर्भगृह के सामने भगवान के विग्रह के दर्शन पाने के पश्चात आँखें बंद करके प्रार्थना करते हैं, इससे इसी तत्त्व का उद्घाटन होता है – हमें बाहर जिस ईश्वर रूप के दर्शन हुए उसे भीतर, अपने हृदय में भी देखना, फिर आँख खोलकर सब में ईश्वर दर्शन करना। ऐसे हम सभी नाम-रूपों का अतिक्रमण कर सर्वव्यापी आत्मचैतन्य का साक्षात्कार कर पायेंगे।