बच्चो, नवरात्रि एक अवसर है सकल जगत-कारिणी, पराशक्ति की पूजा-उपासना करने का! इन नौ दिनों की पूर्णाहूति होती है विजयदशमी के दिन। ये नौ दिन व्रत-उपवास आदि साधना-उपासना के लिए होते हैं। आलस्य, काम-क्रोध, अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष, अधीरता व अविश्वास – ये सब दुर्गुण साधना के मार्ग में बाधाएं हैं। तप के माध्यम से इन पर विजय पा कर आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करना नवरात्रि का उद्देश्य है। हमें शिक्षा मिलती है कि जप-तप से हमें शक्ति, मांगल्य तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है।

स्वरूप से जगत ब्रह्म है, जिसमें जगत के बनने से भी कभी कोई विकार नहीं आता। जगत की सृष्टिकर्त्री को हम ‘देवी’ कहते हैं। ब्रह्म और देवी में कोई भेद नहीं है, बल्कि एक ही सत्य-वस्तु है, जैसे सूर्य और उसका प्रकाश पृथक नहीं, मधु और उसकी मिठास या शब्द और उसका अर्थ बिलग नहीं होते। सनातन धर्म में हमें परमात्मा को किसी भी मनचाहे रूप में पूजने की छूट है। हम उसकी उपासना चाहे माँ के रूप में करें, पिता के रूप में, गुरु-रूप में, मित्र, भगवान के रूप में, यहाँ तक कि अपने बच्चे के रूप में भी। बस, हमारी भक्ति निष्काम हो और उसका आधार अध्यात्म होवे।

सांसारिक सम्बन्धों में, माँ-बच्चे का सम्बन्ध सबसे पवित्र होता है। बच्चे को माँ के साथ पूर्ण-स्वतंत्रता का अनुभव होता है। वो जो चाहे, रो कर, ज़िद कर के मांग लेता है। चाहे उसकी पिटाई भी क्यों न हो रही हो, बच्चा माँ को कस कर चिपका रहता है। उसका भाव होता है, “मेरी माँ के सिवा, मेरा कोई और ठिकाना नहीं है!” बच्चे की परेशानी का कारण जो भी हो, उसे आराम माँ की गोद में आ कर ही मिलता है। हमारा भी परमात्मा के प्रति ऐसा ही भाव होना चाहिए। और माँ तो धैर्य की मूरत होती ही है। उसका बच्चा कितनी भी गलतियां क्यों न करता रहे, वो माफ़ करती रहती है और अपना वात्सल्य बरसाती रहती है। सभी माताओं का अपने बच्चों के प्रति ऐसा ही वात्सल्य-भाव होता है। देवी-माँ भी अपने सब प्राणियों पर समान रूप से प्रेम की वर्षा करती हुई, मानव को अध्यात्म की ओर लिए चलती है।

कई लोग प्रश्न करते हैं कि, “देवी को माया क्यों कहते हैं? माया तो हमें मोह, दुःख और बन्धन में डालती है। तो यदि देवी माया है तो फिर उसकी पूजा-अर्चना क्यों करें?” बच्चो, यह जगत देवी का व्यक्त-रूप है। देवी की सृजनात्मक शक्ति अपनी समस्त सृष्टि में व्याप्त है। वो शक्ति जो एकमेव शुद्ध, अनन्त चेतन शक्ति को नाम-रूप के सीमित संसार में अभिव्यक्त होने देती है, उसका नाम है माया। तो, इस मायाशक्ति के माध्यम से ही ईश्वर हमें अपने कर्मफल के भोग के योग्य बनाता है। इसी शक्ति के चलते ईश्वर हमारे सामने परमात्मा को इस प्रकार से प्रस्तुत करता है कि हमारी समझ में आ सके और हम मुक्ति पा सकें। जब हम देवी की उपासना माया के रूप में करते हैं तो हम इस सत्य को स्वीकार कर, उसे सविनय प्रणाम करते हैं। वास्तव में, माया का बँधनात्मक पहलू हमारा मन ही है, कोई बाहरी वस्तु या शक्ति नहीं। माया इस मन का मूल रूप है, जो बन्धन का भी कारण है और मोक्ष का भी।

एक बार एक आदमी को डकैतों ने लूट कर पेड़ के साथ बांध दिया और फिर कुँए में फेंक दिया। इस आदमी ने सहायता के लिए पुकारा तो कोई राहगीर दौड़ कर आया और कुएँ में रस्सी फेंकी, जिसे पकड़ कर वो बाहर आ गया। तो यहाँ देखो, एक रस्सी ने उसे बंधन में डाला तो दूसरी रस्सी ने उसकी रक्षा की। इसी प्रकार, हमारे बंधन और मोक्ष का कारण बनता है। जब सांसारिक वस्तुओं में रम जाता है तो बन्धन का कारण बनता है और जब हम अपने शुद्ध-बुद्ध स्वरूप के प्रति जागृत हो उठते हैं तो मोक्ष का। तो मन के द्वारा ही मन पर विजय पानी है। मान लो, हमारे पाँव में काँटा चुभ जाये तो क्या हम उसे बाहर निकालने के लिए दूसरे कांटे का सहारा नहीं लेते? और फिर दोनों काँटों को फेंक देते हैं। इसी प्रकार, हमें अपने मन के द्वारा ही राग-द्वेष से परे जाना है और सद्गुणों व ज्ञान का विकास करना है। इस तरह मन द्वारा ही हमें मानसिक शुद्धि प्राप्त करनी है और फिर अपने सत्स्वरूप को जान कर मन की सीमा के पार चले जाना है।

बच्चो, समस्त सृष्टि को परमात्म-स्वरुप जान कर, उसकी सेवा करो। इससे हम परमात्मा के कृपापात्र बन जायेंगे। यह ज़रा कठिन हो सकता है लेकिन हमें कोशिश करनी चाहिए कि हमसे जितना बन पड़े, उतना करें। छोटी-छोटी सी चीज़ें जैसे मीठी सी मुस्कान, दूसरों की गलतियों को माफ़ कर देना…सहायक सिद्ध होती हैं। ये सद्गुण किसी टॉर्च की तरह हमारी राह को रोशन कर देंगे। और हमारी राह जब पूरी तरह से रोशन हो जाएगी तो फिर हमें रस्सी में साँप का और साँप में रस्सी का भ्रम नहीं होगा। फिर हम जो चीज़ जैसी है, उसे वैसा ही देख पाएंगे और दुःख से मुक्त हो जायेंगे।

नवरात्रि का त्यौहार मेरे सभी बच्चों में सद्गुणों जगाये! तुम सब पर ईश्वर कृपा करें!

-अम्मा, श्री माता अमृतानन्दमयी देवी