दिनांक 18 सितंबर को प्रसिद्ध योगगुरु श्रीरामदेवजी बाबा अमृतपुरी में अम्मा के दर्शनार्थ आये थे। माता अमृतानन्दमयी मठ की ओर से स्वामी तुरियामृतानन्द पुरी ने पूर्णकुंभ देकर उनका पारंपारिक रीति से स्वागत किया।

अम्मा के दर्शन के पश्चात वे अम्मा के साथ भजन हॉल में आये। अम्मा ने उन्हें आश्रमवासियों को संबोधित करने का अनुरोध किया।
इस अवसर पर अपने प्रबोधन में वे बोले, ‘‘मैं पहली बार माँ के दर्शन के लिये आया हूँ और एक दिव्य माँ का सान्निध्य, स्पर्श, करुणा, और आचरण कैसा होता है, यह अभी मैंने कुछ ही पलों में अनुभव किया। मैंने माँ के बारे में बहुत सुना था कि माँ बहुत करुणामय हैं, वो बहुत सेवाकार्य कर रही हैं। शिक्षा के क्षेत्र में सेवा, स्वास्थ्य क्षेत्र में सेवा, अन्य धर्मार्थ सेवाकार्य अम्मा यहाँ कर रही हैं। बहुत करुणा वाली हैं। बहुत सेवावाली हैं और मैंने यहाँ और एक बात देखी कि माँ बहुत करुणामय तो हैं ही, साथ ही माँ का आध्यात्मिक ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान भी बहुत उँचा है।

माताजी जोे जीती हैं, वो वेदान्त है।
‘‘माँ मुझसे बायोकेमिस्ट्री के बारे में बोल रही थी। विटामिन बी, विटामिन डी, कैंसर क्या है और उसका उपचार क्या है, आदि। यह मेरे लिये बड़ा आश्चर्य था। पर्यावरण के बारे में मैंने माँ के विचार सुने। मैंने शास्त्र में पढा था कि भगवान के दो रूप है। एक मूर्त और दूसरा अमूर्त। मैंने सुना है, माँ ने वेदशास्त्र का अध्ययन गुरु-शिष्य परंपरा से नहीं किया है, लेकिन माताजी जोे जीती हैं, वो वेदान्त है। माता ने मुझे बताया कि यह सब विश्व भगवान की जीवंत अभिव्यक्ति है। सृष्टिकर्ता और सृष्टि अलग नहीं है। इसमें अभेद है। यही अद्वैत है। यही एकत्व है। यही अद्वैत तत्त्वज्ञान है। सृष्टि और सृष्टिकर्ता अलग नहीं है। और वैसा माता स्वयं जीती भी हैं। सारी सृष्टि भगवान का स्वरूप मानकर सेवा करती हैं तो मुझे लगा कि आत्मज्ञानी, आत्मवेत्ता ऋषि कैसे होते थे – तो माताजी जैसै होते थे।

अध्यात्म में तीन मूल्ये बहुत महत्त्वपूर्ण होते हैं। 1)एकत्व 2)सहअस्तित्व, 3)बंधुत्व, प्रेम व करुणा. माताजी इन तीनों मूल्यों को जीने वाली हैं, इसलिये माताजी धर्म का, वेदान्त का साक्षात स्वरूप है। मैं गुरुकुल में पढा। महर्षि दयानंद जी के संस्कार मिले तो बुद्धि से बहुत काम लेता था। माँ के बारे में सुना था कि माँ बहुत प्यार करनेवाली है, तो मैंने कहा कि ठीक है, हमारी भी माँ हमको बहुत प्यार करती है। लेकिन माँ का प्यार भगवान के प्यार जैसा है। माँ में ज्ञान की पराकाष्ठा है, भक्ति की भी पराकाष्ठा है और कर्म-सेवा की भी पराकाष्ठा है। माँ में त्रिवेणी संगम है। यह मैं माँ की प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ। लेकिन मैंने यहाँ कुछ ही देर माँ को जो अनुभव किया वह कह रहा हूँ।

हम माँ के भक्त तभी कहलाऐंगे, माँ के बच्चे तभी कलहाऐंगे, जब माँ जैसे खुद बन जायेंगे। भक्ति यही है कि जिसकी हम भक्ति करते हैं, वैसा हम खुद बन जायँ। यही श्रद्धा है, यही भक्ति है। यही प्रियाचरण है। यही शिष्यत्व है। भगवान हम सबको ऐसी शक्ति दे कि हम माँ जैसे बन जाएँ।
माँ बोलती बहुत थोडा है, जीती है समग्रता को, सत्य को, धर्म को। आजकल लोग बोलते बहुत हैं और करते बहुत कम हैं, यह बहुत बड़ी समस्या है। मैंने माँ से पूछा कि माँ मुझे भी आदेश दे दो, मैं भी आपकी दिव्य संतान हूँ, आपका पुत्र हूँ। मुझे क्या करना चाहिये। तो माँ बोलती है, मैं जो चाहती हूँ वो तुम अपने आप ही कर रहे हो।

माँ चाहती हैं कि भारतीय नस्ल की गायें बहुत हो, उनकी पूजा हो। उनके द्वारा मनुष्यों की सेवा हो। इस धरती का कल्याण हो। भारतीय नस्ल की गाय जो इधर 2-3 किलो दूध देती है, पतंजलि में वो 30 किलो प्रतिदिन दूध देती है। माताजी बहुत खुश हुई कि 30 लिटर दूध देती है गाय? वो भी भारतीय नस्ल की! वो कुछ गाय मैं यहाँ दान में भेजूँगा जो 25-30 लिटर दूध देती है।

माताजी को मैंने पूछा, धर्म की प्रतिष्ठा कैसी होगी? तो माँ ने कहा, बच्चों को बचपन में ही मॉडर्न एज्युकेशन के साथ, सायन्स के साथ अध्यात्म का, योग, ध्यान, आदि अध्यात्म मूलक धर्म का संस्कार देना होगा। माँ के आशीर्वाद से मैं स्वयं कम से कम 50 साल तो और जीने वाला हूँ। इस 50 साल में जैसा माँ चाहती है, वैसे बच्चे भारत माता को देकर जाना चाहता हूँ।

सायन्स और अध्यात्म को माताजी एकसाथ देखना चाहती है और यही हम सबको मिलकर करना है। माताजी ने बोला अनुसन्धान होने चाहिए। तो हम माताजी के आशीर्वाद से दुनियाँ का सबसे बडा आयुर्वेद रिसर्च सेंटर बना चुके हैं। और उसको आगे बढ़ायेंगे। माँ हमारी बहुत बडी प्रेरणा है। परम प्रेरणा और परम आदर्श। अम्मा एक व्यक्ति मात्र नहीं है। अम्मा इस धरती पर शाश्वत का, उस भगवती जगदंबा का मूर्त रूप है। भगवती माँ की अनंत करुणा, अनंत प्रेम, अनंत दिव्यता, अम्मा में अमृत बनकर बरसती है इसलिये उनका नाम ही अमृतानंदमयी माँ है।

माताजी मुझसे एक बात कह रही थी। जो योगी है, आध्यात्मिक व्यक्तित्व है, ऋषियों के जो उत्तराधिकारी हैं, उन योगी आत्माओं को समाज जीवन में दिव्यत्व लाने के कर्म करना चाहिये और माताजी वैसी करती है इसलिये मैं उनका अभिनंदन भी करता हूँ। आजकल भारत के संतों को लेकर कई प्रश्न उठाये जाते है। लेकिन भारत का संत कैसा होता है, भारत के ऋषि कैसै होते हैं, तो हमारे अम्मा जैसे होते हैं और आज मैं एक बात कहना चाहता हूँ।

पतन तो समाज के हर जीवनक्षेत्र में हो रहा है। लेकिन एक बात मैं आपको कहता हूँ। भारत की करोडो वर्ष पुरानी संस्कृति है। और इसी ऋषि संस्कृति का कभी भी अंत नही होने वाला है। मैं जो कुछ कर रहा हूँ, पूज्य माताजी जो कुछ कर रही हैं, यह हम उसी ऋषि परंपरा को गौरव देने केलिये ही कर रहे हैं। और इस संस्कृति को मिटने का तो प्रश्न ही नहीं, इस संस्कृति को दुनियाँ के शिखर पर ले के जायँगे और भारत माता को परम वैभवशाली जगद्गुरु विश्वगुरु बनायेंगे। और भारत माता का मतलब एक कोई ज़मीन का टुकडा नहीं है। भारत माता का अर्थ है, यह धरती माता। इस धरती पर भारत माता में विशेष पुण्य आत्माओं का जन्म हुआ इसलिये इस भारत माता को हम विशेष गौरव देते हैं, सृष्टि के आदि कालसे। पूरा विश्व ही मेरी अम्मा का परिवार है।

अम्मा से जब मैं मिला अभी सत्संग से पहले तो माँ ने कहा- लोग कहते हैं कि भारत के धर्म में करुणा सिखायी नहीं जाती। तो माँ बोलती हैं, करुणा सिखानी की चीज नही है। जब आप एकत्व में जीते हो, तो करुणा के आप स्वयं अवतार हो जाते हो। आपका जीवन पूरा ही करुणामय हो जाता है, क्योंकि आपको सृष्टि के कर्ता और सृष्टि में भेद ही नहीं दिखाई देता। सेवा में आप धन्यता अनुभव करते हो। यही सबसे बडी करुणा है।

पूरा विश्व ही अम्मा का परिवार है। यहाँ सभी हैं। भाषा की सीमा नहीं, धर्म की सीमा नहीं, जाति की सीमा नहीं, देश की सीमा नहीं। यहाँ केवल एकत्व ही है। अपना शरीर देखे। पांच तत्त्व सभी जगह एक जैसे है, पंचभूतात्मक ज्ञानेंद्रिये, कर्मेंद्रिये एक जैसे है, अपना आत्मा भी एक ही है। और परमात्मा भी एक ही है। फिर भेद कहाँ है? इसलिये एकत्व ही अंतिम सत्य है। जो इस एकत्व को अनुभव नही कर पाते या तो वे मूर्ख है, या तो वे अंधे हैं। माताजी ने अंधों को आँखें दी हैं। और मंदबुद्धियों को, बुद्धुओं को बुद्धि दी है।

अम्मा का स्कूल डिग्रीवाला नहीं है, डिविनिटी वाला है। और मुझे जहाँ तक पता है, अम्मा ने डिग्री नहीं ली है, वो तो डिविनीटी है। और मैं आपसे भी कहता हूँ- यह बात सीखने जैसी है- दिव्यता बाहर से नही सिखी जाती। वो अंदर से उतरती है। जैसे माँ के रूप में वो दिव्यता अवतरित हुई है। और यही भारतीय संस्कृति का सबसे बडा सिद्धांत है।

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते। हम सबके भीतर पूर्णता है। हम अपने भीतर अपूर्णता, न्यूनता, अल्पता अनुभव करते है, तभी तो हम दुःखी होते है, स्त्री सोचती है, मैं पुरुष से और पुरुष सोचता है मैं स्त्री से पूर्ण हो जायेंगे यह सही नहीं हैं। स्त्री भी पूर्ण है। पुरुष भी पूर्ण है। सृष्टि भी पूर्ण है और सृष्टिकर्ता भी पूर्ण है। जब सबकुछ पूर्ण है तो अपूर्णता कैसी? आदमी सोचता है मेरे पास पैसा कम है। मैं गरीब आदमी हूँ। पैसे से मैं पूरा हो जाऊँगा। सत्ता नहीं है, सत्ता से पूरा हो जाऊँगा। संपत्ति से पूरा हो जाऊँगा। यही सोच विनाशक सोच है। यही सोच दुःख देने वाली सोच है। इसलिये बाहर की सत्ता संपत्ति, ऐश्वर्य, उपलब्धियाँ, सफलताऐं यह हमें पूरा नहीं करेंगी, जबतक हम खुद भीतर से हमारी पूर्णता को अनुभव नही करेंगे। कुछ लोगों के मन में प्रश्न उठता होगा, जब सबकुछ पूरा है तो कुछ भी क्यों करना? तो फिर कुछ भी मत करो। तो क्या निष्क्रिय बनकर रह जाये? यही धर्म है? यही जीवन है? यह धर्म नहीं, यह तो अधर्म है। वेद कहता है, जो कर्म नहीं करते वे तो राक्षस है।

कुर्वेन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेद् शतगुम् समाः यह सिद्धांत है, अपने कर्म को धर्म मानकर भगवान की सेवा करो।
देखो, यह सूर्य अपना कर्म करता है, चंद्र अपना कर्म करता है। धरती माँ अपना कर्म करती है। और यह भगवती अम्मा अपना कर्म करती है। तो सब अपना अपना कर्म करें तो यही धर्म है, यही जीवन है, यही सृष्टि का विधान है। यही वेद का विधान और यही सनातन सिद्धांत। तो सदा अपने भीतर पूर्णता अनुभव करते हुये, पूर्ण कृतज्ञता के साथ जैसे संसार की सारी वस्तुएं अपने अपने कर्तव्य में लगी हुई है। हम भी अपने कर्तव्यों को श्रद्धापूर्वक निभाएँ तो हमारा जीवन भगवान की आराधना, पूजा बन जाता है। ऐसी पूर्णता हम सबको मिलें, ऐसा अम्मा हम सबको आशीर्वाद दें।

अम्मा को भजन बहुत प्रिय है इसलिये एक-दो भजन की लाईन गाता हूँ।

प्रभुजी इतनी सी दया कर दो, हमें भी तुम्हारा प्यार मिले।
कुछ और भले मिले ना मिले । प्रभु दर्शन का अधिकार मिले।
कुछ और भले मिले ना मिले। हम जनम् जनम् के प्यासे हैं
और तुम करुणा के सागर हो। करुणानिधि से करुणारस की
एक बूँद हमें एक बार मिलें। प्रभु मन मंदिर में दातार मिलें।
प्रभु दर्शन का अधिकार मिलें। हमको भी तुम्हारा प्यार मिलें।