कल्पना करो कि हम जन-समूह में हैं और हमें एक पत्थर आ कर लगता है और हमें चोट लग जाती है। ऐसे में होना यह चाहिए कि हम पत्थर मारने वाले को पकड़ने की बजाय पहले अपने घाव पर ध्यान दें, उसकी मरहम-पट्टी करें। किन्तु यदि हम पत्थर मारनेवाले के पीछे दौड़ेंगे तो अपने घाव को धूल तथा जीवाणुओं के लिए खुला छोड़ देंगे, जिससे उसे भरने में बहुत समय लग जायेगा। इसके अतिरिक्त, हम किसी को पकड़ कर गाली-गलौज कर लें, पिटाई कर डालें और बाद में मालूम हो कि हमने तो किसी गलत व्यक्ति की धुलाई कर दी तो? ऐसा भी तो सम्भव है कि पत्थर हमें दुर्घटनावश आ लगा हो। और यदि हमारी पकड़ में सही व्यक्ति भी आ गया तो उसकी पिटाई करने से हमारा घाव तो भर नहीं जायेगा ना ही पीड़ा दूर होगी। क्रोध की स्थिति भी घाव जैसी ही होती है। हमारी अविलम्ब प्रतिक्रिया होनी चाहिए कि हम इसे शांत करें, अतः उस समय हमें साक्षी-भाव से रहना चाहिए। यदि हम नकारात्मक विचारों से तादात्म्य कर लें और उनमें फँस कर रह जाएँ तो हम शीघ्र ही उन्हें वचन तथा कर्म में परिणत होते पायेंगे, जोकि आगे चल कर दुखदायी ही होने वाला है। हमने क्रोध के सामने घुटने टेक दिए तो शीघ्र ही जान जायेंगे कि यह हमारे लिए कहीं अधिक हानिकर है बजाय उस व्यक्ति के जो इसका कारण है।

अम्मा को यहाँ एक बस-कंडक्टर की कथा याद आती है। एक दिन उसे अपने एक स्टॉप पर एक हट्टा-कट्टा, सात-फुट लम्बा नया व्यक्ति दिखाई दिया। वो बस पर चढ़ा और एक सीट पर बैठ गया। जब कंडक्टर ने किराया माँगा तो उसने उत्तर में कहा कि, “राम सिंग को टिकिट की ज़रूरत नहीं। ” दुबले से कंडक्टर ने गौर से उसे देखा और डर के मारे दोबारा नहीं माँगा। वो कोई गैंग-लीडर जान पड़ता था, अतः बिना कुछ और बोले कंडक्टर वापस अपनी सीट पर आ कर बैठ गया। अगले दिन भी यही घटनाक्रम रहा। वो व्यक्ति उसी बस-स्टॉप से चढ़ा और टिकिट खरीदने के लिए उसका वही उत्तर था कि, “राम सिंग को टिकिट की ज़रूरत नहीं। ” भीतर ही भीतर कंडक्टर क्रोध से उबल रहा था। वह उस गुंडे को सबक सिखाना चाहता था! उसे अब कुछ और सूझता ही न था। उसकी मनःशान्ति कहीं खो गई थी। और वो व्यक्ति प्रतिदिन बस पर चढ़ता, बिना टिकिट सफ़र करता और उतर जाता और कंडक्टर महाशय का क्रोध प्रतिदिन सातवाँ आसमान छूता। उसका मन इतना अशांत था कि वह अपने पत्नी-बच्चों के साथ भी बात नहीं कर पाता था। आखिर उसने सोचा कि बहुत हो गया, अब कुछ करना ही पड़ेगा। परन्तु समस्या थी कि वह स्वयं तो इतना छोटा, दुर्बल सा था। अतः उसने एक कराटे-टीचर से सहायता लेने का निर्णय किया। अब उसके जीवन का केंद्र-बिंदु कराटे बन गया, जिसमें निपुणता पाने के लिए वह छुट्टी पर भी रहने लगा। वो कराटे तथा मार्शल-आर्ट्स सीखने के अतिरिक्त कुछ नहीं करता था। सब सीखने के पश्चात् जब वह काम पर वापस लौटा तो विश्वस्त था कि अब वह सात-फुटे बदमाश से निपट सकता है। पहले ही दिन वो भारी-भरकम व्यक्ति स्टॉप पर मिल गया। हमेशा की तरह, आज भी कंडक्टर टिकिट देने लगा तो चिर-परिचित उत्तर सुनाई दिया, “राम सिंग को टिकिट की ज़रुरत नहीं।” परन्तु आज… कंडक्टर ने आवाज़ ऊँची करते हुए कहा, “ऐ भाई! यह सब नहीं चलेगा! टिकिट तो तुम्हें लेना ही पड़ेगा, नहीं लोगे तो बस यहाँ से एक इंच भी आगे नहीं चलेगी!”

इस पर सात-फुटे आदमी ने कहा, “क्षमा चाहता हूँ, राम सिंग को टिकिट की ज़रूरत नहीं है। मेरे पास फ्री-पास है।” और उसने जेब से फ्री-पास निकाला और परिवहन-विभाग के एक उच्च-अधिकारी के रूप में अपना परिचय दिया, जिस पद पर यात्रा हेतु फ्री-पास का विशेषाधिकार दिया जाता है।

तो यहाँ किसकी हार हुई? कंडक्टर ने कितने दिन गँवा दिए? उसने कराटे सीखने के लिए, व्यर्थ ही कितना समय तथा धन बर्बाद किया? कितना तनाव-ग्रस्त रहा? और फिर, घर की शान्ति भी नष्ट हुई। इस सब में उसे क्या मिला? कुछ भी तो नहीं!

क्रोध में ऐसा ही होता है। सब खोता ही है, प्राप्त कुछ नहीं होता। हमें यह सदा याद रखना चाहिए। जब क्रोध आने लगे तो उसे दबाना नहीं, अन्यथा आखिर एक दिन फट पड़ेगा। परन्तु तत्काल प्रतिक्रिया से भी बचें। जितना हो सके, मन को शांत करने का प्रयास करें। फिर बुद्धिमत्ता सहित स्थिति को आँकें। यदि हम ऐसा कर सकें तो जीवन में क्रोध से उत्पन्न होने वाली कितनी ही विपदाओं से बच सकते हैं!