एक बार एक संपन्न व्यापारी था जिसकी एक दुकान थी। उसे प्रायः व्यापार के सिलसिले में बाहर जाना पड़ता था, अतः उसने एक मैनेजर रख लिया जिसे उसने दुकान की रोज़मर्रा की सब ज़िम्मेदारी सौंप दी – जैसे रोज़ के कारोबार का हिसाब-किताब रखना आदि। उसने उसे यह आदेश दिया कि प्रतिदिन के लाभ का दस प्रतिशत एक ओर रखे, जिसमें से सात प्रतिशत सीधे व्यापारी के घर पर पहुंचाए तथा तीन प्रतिशत बैंक में जमा करा दे। व्यापारी ने मैनेजर को बताया कि बैंक-खाता एक अनाथ बच्चे के नाम है और जमा पूंजी उसकी देखभाल के लिए है। पहले-पहल तो मैनेजर ने बिना जाने-बूझे आदेश का पालन किया और तीन प्रतिशत जमा कराता रहा। परन्तु कुछ समय पश्चात्, वह सोचने लगा, “खून-पसीने की गाढ़ी कमाई क्यों उस अनाथ को यूँ ही दे दी जाए?”

तब से वह अनाथ बच्चे के खाते में एक ही प्रतिशत जमा करता और शेष धन अपने मित्रों के साथ रात-रात भर बैठ कर शराब पीने में उड़ाने लगा। व्यापारी ने मैनेजर पर न तो कभी संदेह किया और न ही खाते को कभी जांचा। फिर कुछ समय बीता और मैनेजर ने वो एक प्रतिशत भी जमा करवाना बन्द कर दिया और सारा धन विषय-भोग पर खर्च कर देता।

नशे की तथा अन्य बुरी लतों के चलते, मैनेजर इतना बीमार हो गया कि काम पर भी नहीं आ पाता था। एक दिन जब वह बिस्तर में पड़ा था तो उसे व्यापारी का पत्र प्राप्त हुआ जिसमें लिखा था, “मुझे मालूम हुआ कि तुम बीमार हो और बिस्तर पर पड़े हो । मुझे यह भी मालूम है कि अब तुम्हारे लिए दुकान पर आना, मेरे लिए काम करना कठिन है, इसलिए मैं दुकान बन्द कर रहा हूँ। तुम्हें याद है, मैनें तुम्हें प्रतिदिन तीन प्रतिशत बैंक में जमा कराने को कहा था? मैंने तुमसे कहा था कि वो किसी अनाथ के लिए है परन्तु वास्तव में वो तुम्हारी रिटायरमेंट के लिए था। मुझे आशा है कि अब तक उस खाते में पर्याप्त धन जमा हो गया होगा जिससे तुम शेष जीवन आराम से बिता सकते हो। ”

हममें से अधिकाँश लोग उस मैनेजर जैसी ही स्थिति में हैं, जिसे वो पत्र पढने को मिला। बाद में पछताने से क्या होता है कि, “हे भगवान्! मैंने तुम्हारे द्वारा प्रदान प्रत्येक अवसर को व्यर्थ क्यों गँवा दिया!” मृत्यु सामने आ खडी हो तब रोने से क्या होता है? हम इस दुनियाँ से यदि कुछ साथ ले जा सकते हैं तो वो है अपने द्वारा किये सत्कर्मों की पूँजी।

हमारा शरीर एक राजा द्वारा शासित राष्ट्र-तुल्य है। ताज तथा राजदंड तो उस राजा की धरोहर हैं जिसे दिन-रात लोग सलाम करते हैं। इसी प्रकार, जब तक हमारा शरीर स्वस्थ है तब तक हाथ-पाँव आदि हमारी आज्ञा का पालन करते हैं। एक बार ताज व राजदण्ड अपने हाथ से गए तो कोई भी उसे राजा ही नहीं समझेगा। जब हम स्वस्थ हैं तो शरीर के सब भाग मस्तिष्क की बात मानते हैं। मस्तिष्क कहता है – “हाथ उठाओ! पाँव चलाओ! गीत गाओ!” – आदि-आदि और शरीर झट आज्ञा का पालन करता है। परन्तु बीमार, बिस्तर पर पड़ा शरीर सदा ऐसे आज्ञा-पालन नहीं कर सकता। हम हाथ को उठने को कहते हैं तो वो हँसता है और हमें चुपचाप पड़े रहने को कहता है। इसी प्रकार हमारे पाँव तथा सिर भी करते हैं। वे कहते हैं, “जब तक तुम स्वस्थ थे, जब तक तुम्हारे पास ताज था, हमने तुम्हारी आज्ञा का पालन किया। अब तुम्हारा ताज जाता रहा, तुम शिथिल हो गए हो तो अब हम तुम्हारा कहना क्यों मानें?” बीमारी में हमारा अपना शरीर हमारी बात नहीं सुनता। व्यक्ति कूद-भाग नहीं सकता, चबा या निगल नहीं सकता। आँखें, कान स्थाई रूप से हड़ताल पर चले जाते हैं।

इस प्रकार, हम उस राजा की भाँति हो जाते हैं जिसके मंत्रियों ने तख्ता-पलट कर दिया हो। अतः बच्चो, अम्मा की बात ध्यानपूर्वक सुनो। आज जब तुम युवा और स्वस्थ हो तो समझदारी के साथ, विवेकपूर्वक जियो। मन में दूसरों के प्रति करुणा का भाव रखो। अहंकारवश दूसरों को अपने अधीन करने की भावना न रखो। यदि हम दूसरों को दुःख देते हुए जीवन व्यतीत करेंगे तो हमारी प्रार्थनाएं सफ़ल नहीं होंगी। परमात्मा का आशीर्वाद उनके साथ होता है जिनके हृदय में करुणा है। युवावस्था, स्वस्थावस्था में ही हमें करुणा का विकास कर लेना चाहिए। आगे चल कर, दुःख-संकट की घड़ी में यही हमारे काम आएगी।