एक बार एक व्यक्ति ने एक धनाढ्य इलाके में एक आलीशान भवन किराये पर लिया। धीरे-धीरे उसे भ्रम हो गया कि वो राजा है और बहुत अहंकारी हो गया। एक दिन एक साधु उसके घर पर भिक्षा मांगने आया तो उसने बड़ा निन्दनीय व्यवहार किया। साधु ने कहा, “तुमने यह घर किराये पर ही तो लिया है और अपने आप को राजा समझने लगे हो। ज़रा सोचो और वास्तविकता के धरातल पर लौट आओ। वास्तव में, तुम्हारा कुछ भी नहीं; फिर भी व्यवहार यूँ करते हो मानो सब कुछ तुम्हारा है। कितनी दयनीय दशा है!”

आज हम सबकी यही हालत है। कुछ भी हमारा नहीं है; सब परमात्मा की ओर से भेंट-स्वरूप प्राप्त हुआ है। अनेकों ग्रन्थ पढ़ कर भी लोग समुद्र-किनारे बैठ कर कौओं की तरह काँव-काँव किया करते हैं। उनका जीवन के साथ तालमेल नहीं है, वे नहीं जानते कि कैसे जीना चाहिए। वे इस माया-जगत् में क्यों भटक रहे हैं?जिन्होंने शास्त्रों को ठीक से समझा है, वे क्या करते हैं? वे वाद-विवाद में समय व्यर्थ नहीं गँवाते;वे दूसरों को उपदेश देते हैं कि कैसे प्रगति पथ पर बढ़ें। वे लोगों को अपने मत पर आधारित लम्बे-लम्बे भाषण नहीं देते। वे बताते हैं की सब अपने-अपने चुने हुए आध्यात्मिक पथ पर, अपनी वासनाओं तथा मतानुसार आगे बढ़ें। इसीलिये हिन्दू धर्म में एक सत्य के अन्वेषण के लिए अनेकों मार्गों तथा साधनों को स्वीकृति दी गई और व्यवस्था भी की गई।

अम्मा के आश्रम में सेवा को महत्व दिया जाता है। यह अनेकों साधनाओं में से एक है। हमें प्रत्येक व्यक्ति के स्तर को देखते हुए, उनके उत्थान हेतु अनुकूल साधन बताने चाहियें। अद्वैत कोई रटने की वस्तु नहीं है, जीने की कला है-तभी हम सत्य का साक्षात्कार कर सकेंगे।

अम्मा के आश्रम में इंजीनियर, डॉक्टर, लेखक तथा स्कूलों एवं प्रिंटिंग-प्रेस में कार्यरत लोग हैं। उनमें बहुत से लोग उच्च शिक्षा-प्राप्त हैं। वे सब अपनी-अपनी योग्यतानुसार अपने कर्तव्यों का निर्वाह करते हैं। इसके साथ-साथ वे ध्यान भी करते हैं, शास्त्रों का अध्ययन भी करते हैं। वे अपने नियत-कर्मों को आसक्ति रहित हो कर करना सीखते हैं जोकि स्वार्थ तथा अहम् से मुक्ति पाने में बहुत लाभकारी सिद्ध होगा। जब कर्म को आसक्ति-रहित हो कर किया जाता है तो यह बंधन का कारण नहीं बनता अपितु मुक्ति का हेतु बन जाता है।

अम्मा के आश्रम में कुछ लोग अगरबत्तियों को पैक करते हैं, तो दूसरी ओर कठिनतम चिकित्सा करने वाले डॉक्टर भी हैं। यहाँ आने वाले कुछ दर्शनार्थी वेदान्ती होने का, ब्रह्म होने का दावा करते हैं। उनमें से एक ने प्रश्न किया कि, “अम्मा, एक आत्मा दूसरी आत्मा की सेवा कैसे कर सकती है?आश्रम में सेवा की क्या आवश्यकता है? क्या शास्त्र पर कक्षा पर्याप्त नहीं?”

बच्चो, प्राचीन काल में लोग परिवार का पालन-पोषण करने के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश करते और फिर संन्यासी हो जाते। किन्तु तब तक वे अपने सभी कर्तव्यों का निर्वाह कर चुके होते थे और जीवन के कुछ ही वर्ष शेष होते थे। फिर भी वे गुरु के आश्रम में रहते हुए नियत कर्म व सेवा करते थे। वेदान्ती विद्वान भी अपने वेदान्ती गुरु की पूर्ण श्रद्धा-भक्ति के साथ सेवा करते थे। वे बाहर जा कर ईंधन की लकड़ी ले कर आते, गौएँ चराते, धान के खेतों में मेढें बना कर उनकी बाढ़ से रक्षा करते। तुमने आरुणि की कथा नहीं सुनी?उसने गुरूजी के खेत में पानी को घुस आने से रोकने के लिए सब सम्भव प्रयत्न किये। आखिर अपने शरीर को ही बाँध के रूप में झोंक दिया। ये कथाएं दर्शाती हैं कि वेदान्ती लोग भी कभी निस्स्वार्थ कर्म को वेदान्त का विरोधी नहीं समझते थे। वे ऐसा कभी नहीं सोचते थे कि, “क्या यह कीचड़ नहीं?क्या यह पानी नहीं?क्या मैं आत्मा नहीं?”उस समय ऐसे शिष्य होते थे।

अम्मा को याद है, कैसे आश्रम के ब्रह्मचारी एवं संन्यासी लोग सुनामी-राहत-शिविरों में भोजन परोसा करते थे। अपनी भूख-प्यास तथा अन्य शारीरिक आवश्यकताओं को ताक पर रख कर, वे ज़रूरतमंदों की सेवा में समर्पित थे। इस प्रकार उन्होंने कितने लोगों को बचाया। आश्रमवासियों ने भी भूकम्प-पीड़ितों की इसी प्रकार सेवा की। इसका परिणाम यह हुआ कि जब इतने वर्षों बाद सुनामी आपदा आई तो इन आश्रमवासियों से प्रेरित गुजरात के भूकम्प-ग्रस्त इलाके के गाँवों से लोग सुनामी-पीड़ितों की सहायतार्थ दौड़ पड़े। उनके शब्द थे, “क्या हमारी ज़रुरत के समय अम्मा ने हमारी सहायता नहीं की थी? आज जब केरल में सुनामी आई है तो क्या हम चुपचाप खड़े हुए देखते रह जाएँ? “अम्मा बता नहीं सकती कि उस समय अम्मा उनके इस भाव से कितनी द्रवित हुई थी।

प्राचीन काल में, प्रायः गुरु के एक या दो शिष्य होते थे। परन्तु अम्मा के आश्रम में तो हजारों की संख्या में हैं। उन सबके लिए चौबीसों घंटे ध्यान में बैठना सम्भव है?कभी नहीं। विचार उन्हें बैठने नहीं देंगे। अपनी कर्मेन्द्रियों द्वारा सेवा-कार्य करते हुए, हमें अपने विचारों को सही दिशा देनी चाहिए। इस प्रकार हम समाज के लिए लाभकारी कार्य कर सकेंगे। वास्तव में हमारे आश्रम में बच्चों की स्वर्ग में कोई रुचि ही नहीं। 90% लोग समाज-सेवा ही करना चाहते हैं। उन्हें स्वर्ग भेंट में भी दिया जाए तो वे उसे ‘अलविदा ‘कह कर ठुकरा देंगे। क्योंकि स्वर्ग तो उनके हृदय में है, अन्य किसी स्वर्ग में जाने की उन्हें ज़रुरत ही कहाँ है? अधिकतर आश्रमवासी ऐसा सोचते हैं कि एक कारुणिक हृदय स्वयं स्वर्ग होता है।

पहले अधिकांश लोग सामान्य-व्यक्ति की सेवा के इच्छुक नहीं थे। यही कारण है कि हमारी सभ्यता का ह्रास हो गया और आज हम दुखी हैं।

हमें अद्वैत तथा जीवन को भिन्न नहीं अपितु एक ही जानना होगा। हममें दूसरों में स्वयं को देखने की योग्यता आनी चाहिए। अम्मा अपने चारों ओर दुःख देखती है, इसीलिये ऐसा कहती है।

निस्स्वार्थ सेवा के माध्यम से हमारे मन विस्तार को प्राप्त होते हैं तथा अन्त में ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। इससे हमारे मन की कुरूपता मिट जाती है और आत्मा के साथ ऐक्य स्थापित हो जाता है। प्रवचन देने के स्थान पर, हमें इन शिक्षाओं पर आचरण करना चाहिए। अम्मा के सभी बच्चों का यह लक्ष्य हो!अपने स्वार्थ-रहित दृष्टान्त को सामने रख कर ही हम दूसरों को इन सिद्धांतों को आत्मसात करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इस पर तनिक विचार कीजिये!