अम्मा के विदेशी भक्त, युद्ध के कभी न समाप्त होने वाले भीषण आक्रमणों पर, प्रायः अपनी कुण्ठा व्यक्त करते हैं। वे अम्मा से पूछते हैं, “क्या इस पागलपन का कोई अन्त नहीं है?”
जगत् के आदि से ले कर संघर्ष चला आ रहा है। यह कहना कि इसे पूर्णतया समाप्त कर देना असंभव है, व्यग्रता को जन्म देता है। किन्तु सत्य तो यही है, है ना? क्योंकि जगत् में भले और बुरे का द्वंद्व सदा रहेगा। हमारे भले की स्वीकृति व बुराई के त्याग के संघर्ष में इस सम्भावना का पूर्णरूपेण समापन असम्भवप्राय हो जाता है। लगभग सभी देशों में यह संघर्ष आंतरिक विवादों, युद्ध तथा हड़तालों के रूप में उभर कर सामने आता है। यद्यपि अधिकांश युद्धों का उद्देश्य निजी-हितों की रक्षा होता है परन्तु यदा-कदा ऐसी परिस्थितियाँ भी रहीं जब जन-सामान्य की आवश्यकताओं तथा हित पर भी विचार किया गया और अधिक लाभ प्राप्त हुआ।
दुर्भाग्यवश, मनुष्य ने अधिकांश युद्ध सत्य व न्याय की पुष्टि हेतु नहीं अपितु स्वार्थ से प्रेरित होकर लड़े हैं। लगभग 5000 वर्ष पूर्व, भारतीय सम्राट, मौर्य वंश के प्रवर्तक, चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य तक सभी भारतीय युद्धों में सत्य तथा धर्म की मुख्य भूमिका रही। उस समय भी शत्रु को पराजित करना, आवश्यक हो तो उसका विनाश भी करना, युद्ध का भाग हुआ करते थे। परन्तु युद्ध के दौरान युद्धक्षेत्र पर स्पष्ट नियम हुआ करते थे।
उदाहरण के लिए, पैदल सेना को पैदल सैनिकों से ही युद्ध करना होता था तथा घुड़सवारों को घुड़सवारों से। हाथी पर चढ़े अथवा रथी योद्धा अपने समकक्ष योद्धाओं के साथ ही युद्ध करते थे। ऐसे ही नियम गदा, तलवार, भाले-धारियों तथा धनुष-बाण- धारी योद्धाओं पर लागू होते। सैनिकों को घायल, निहत्थे सैनिकों व स्त्रियों, बालकों, बूढ़ों तथा रोगियों पर आक्रमण करने की अनुमति नहीं हुआ करती थी। युद्ध का आरम्भ प्रातःकाल, शंखनाद के साथ होता और ठीक सूर्यास्त के समय विराम हो जाता और दोनों पक्षों के सैनिक परस्पर शत्रुता को भुला कर मित्रों की भाँति इकट्ठे भोजन करते। अगले दिन, फिर से सूर्योदय के साथ युद्ध पुनः आरंभ होता। कभी-कभी विजेता राजा युद्ध में जीता हुआ पराजित राजा का राज्य तथा धन उस पराजित राजा अथवा उसके उत्तराधिकारी को लौटा देते। युद्धों में भी ऐसी महान परम्परा थी, जिसमें युद्धभूमि पर तथा उसके बाहर भी शत्रु के प्रति भी सम्मान व उदारता का भाव होता था। शत्रु-राज्य के नागरिकों की भावनाओं एवं संस्कृति का भी सम्मान किया जाता था। ऐसे साहसी थे उस समय के लोग!
आजकल आतंकवादी हमलों की रोकथाम हेतु एअरपोर्ट तथा अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों में कड़े सुरक्षा नियम लागू किये जाते हैं। हमारी शारीरिक सुरक्षा के लिए ये नियम आवश्यक हैं परन्तु यह कोई समाधान तो नहीं। वस्तुतः एक ऐसी विस्फोटक पदार्थ है जोकि सबसे घातक है और किसी मशीन द्वारा उसका पता नहीं लगाया जा सकता – वो है मानव-मन में भरी घृणा और बदले की भावना। जब तक हम अपने मन से इन घातक भावनाओं का निर्मूलन नहीं करेंगे, तब तक युद्ध और हिंसा का अन्त नहीं हो सकता।
आजकल, युद्ध में शत्रु-देश को हर सम्भव दृष्टि से नष्ट किया जाता है। विजेता परास्त देश की भूमि, प्राकृतिक-संसाधनों तथा धन-संपत्ति पर एकाधिकार स्थापित कर, लूटपाट करते हैं व अपने मौज-मज़े के लिए प्रयोग करते हैं। जो संस्कृति, परम्परा पीढ़ियों से विरासत में प्राप्त हुई थी, उसका समूल नाश कर दिया जाता है, भोले-भाले लोगों की बेरहमी से हत्या कर दी जाती है। इसके अतिरिक्त, बमों तथा अन्य शस्त्रों द्वारा भारी मात्रा में छोड़े गए विषाक्त धुंए द्वारा जलवायु व मिट्टी के प्रदूषण की तो हम थाह भी नहीं पा सकते। परिणामस्वरूप कितनी आगामी पीढ़ियों को शारीरिक व मानसिक दुःख सहने पड़ते हैं। युद्ध के पश्चात् कुछ शेष बचता है तो केवल मौत, गरीबी, भुखमरी व महामारी। युद्ध के मानवता को यही उपहार हैं।
आज कुछ आर्थिक दृष्टि से संपन्न देश मात्र इसीलिये युद्ध को भड़काते हैं ताकि उनके आधुनिकतम शस्त्रों के विक्रय में वृद्धि हो। हम जो कुछ करें, भले वो युद्ध ही हो, उसका लक्ष्य सत्य एवं धर्म की रक्षा ही होना चाहिए। अम्मा यह नहीं कहना चाहती कि युद्ध अटल हैं। देखा जाए तो किसी भी काल में युद्ध अनिवार्य नहीं होता। परन्तु जब तक मानव के मन में द्वंद्व जारी है तब तक क्या हम बाह्य जगत् से युद्ध का पूर्णतः उन्मूलन कर पाएंगे? यह सोचने जैसी बात है।
आज विश्व में अनेकों द्वंद्वों का एक मुख्य कारण है – विज्ञान व धर्म में अलगाव। वास्तव में, विज्ञान तथा धर्म को कदम से कदम मिला कर आगे बढ़ना चाहिए। विज्ञान के बिना धर्म और धर्म के बिना विज्ञान अधूरे हैं। विज्ञान की सहायता से हमें मनुष्य के मन से घृणा एवं बदले की भावना को पूर्णरूपेण उखाड़ फेंकना चाहिए। सब धर्मों का सार प्रेम ही है। वैज्ञानिक उत्कर्ष का लक्ष्य समाज का उत्थान होना चाहिए। हमें इतिहास से शिक्षा लेनी चाहिए किन्तु वहीं रुक नहीं जाना चाहिए। विज्ञान तथा अध्यात्म के मिलन द्वारा हम भूतकाल के अंधकारमय गलियारों से बाहर, शान्ति, एकता तथा मैत्री के प्रकाश में आ पहुंचेंगे।
बच्चो, हम सबको इसके लिए प्रार्थना करनी चाहिए।