प्रश्न— अम्मा, इस युग में आत्मज्ञान पाने के लिये कौन सा पथ श्रेष्ठ है?
अम्मा— आत्मज्ञान कहीं बाहर बैठा हुआ नहीं है जिसे जाकर पाया जा सके। भगवान कृष्ण कहते हैं – ‘चित्त की समता ही योग है’। हमें हर वस्तु में दिव्य चेतना दिखनी चाहिये, तभी हम पूर्णता पा सकेंगे। हमें हर वस्तु में अच्छाई ही देखनी चाहिये। एक मधुमक्खी, फूल में केवल रस पर केंद्रित होती है और उसकी मिठास का आनंद लेती है। जो सदा हर वस्तु का केवल अच्छा पक्ष देखते हैं वे ही आत्मज्ञान पाने के अधिकारी हैं।
अगर हम आत्मज्ञान पाना चाहते हैं, तो शरीर को पूरी तरह भूलना होगा। हमें पूर्ण रूप से आश्वस्त होना होगा कि हम आत्मा ही हैं। प्रभु का कोई विशिष्ट निवास स्थान नहीं है, वे हमारे हृदय में बसते हैं। सभी आसक्तियों और देहभाव से मुक्त होना आवश्यक है। तब हममें एक गहरी समझ पैदा होगी, कि आत्मा को कोई जन्म मृत्यु नहीं है, न कोई सुख दुःख है। हमारा मृत्यु भय मिट जायेगा और हम आनंद से भर जायेंगे।
एक जिज्ञासु साधक को, हर परिस्तिथिति को धैर्यपूर्वक स्वीकार करना सीखना चाहिये। यदि शहद में कुछ नमक मिल गया है, तो लगातार शहद डालते जाने से नमकीन स्वाद हट जायेगा। इसी तरीके से हमें द्वेष भाव तथा मैं भाव से, पूरी तरह छुटकारा पाना चाहिये। अच्छे विचारों के सतत चिंतन के द्वारा इसे प्राप्त करो। जब मन इस तरीके से निर्मल हो जायेगा, तो हम किसी भी स्थिति को प्रसन्नता पूर्वक स्वीकार कर सकेंगें। इस तरह हम आध्यात्मिक उन्नति अवश्य प्राप्त करेंगे, चाहे हमें तत्काल इसका पता न भी चले।
आत्मज्ञान की अवस्था में, हम दूसरों को अपना ही आत्मरूप मानते हैं। चलते हुए यदि हम गिर जाते हैं और पैर को चोट पहुँचती है, तो हम आँखोंको दोष देकर, उन्हें दंडित नहीं करते, चोटग्रस्त पैर को आराम देने की कोशिश करते हैं। यदि हमारे बाँये हाथ को चोट लगती है, तो दाहिना हाथ फौरन मदद के लिये आगे आता है। उसी तरह आत्मज्ञान का अर्थ है, दूसरों में अपनी आत्मा का अनुभव करते हुए, उनकी गलतियों को माफ़ करना।
आत्मज्ञानी के लिये, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं है, परन्तु उस अवस्था का अनुभव पाने के पूर्व, आत्मज्ञान की सब बातें, कोरे शब्द हैं। उन शब्दों में अनुभव की शक्ति नहीं होती। और सद्गुरु की सहायता के बिना, चेतना के उस स्तर तक पहुँचना भी असंभव है। एक साधक के लिए सद्गुरु के उपदेषानुसार, आचरण परम आवश्यक है। आत्मज्ञान पाने के लिये केवल दृष्टिकोण बदलने की ज़रूरत है — बस!
भ्रमव्य लोग यह सोचते हैं कि उनके सांसारिक बंधन वास्तविक हैं। एक गाय की कहानी है, जो रोज़ एक शेड में खूँटे से बाँधी जाती थी। एक दिन उसे खूँटे से नहीं बाँधा गया। उसे केवल शेड के अंदर करके, दरवाज़ा बंद कर दिया गया। गले की रस्सी का दूसरा सिरा ज़मीन पर पड़ा रहा। दूसरे दिन जब गाय को शेड से बाहर करने के लिये दरवाज़ा खोला गया तो गाय अपने स्थान से नहीं हिली। उसने गाय को धक्का दिया, डंडे से मारा, पर गाय टस से मस नहीं हुई। तब उसने सोचा कि रोज़ मैं इसे बाहर करने से पूर्व, खूँटे से रस्सी खोलता हूँ, अगर मैं इसे खूँटे से खोलने का नाटक करुँ तो? उसने वही किया। बस, गाय चल पड़ी।
लोगों की भी वही दशा है। वे बंधे हुए नहीं है, पर सोचते हैं कि वे बंधे हुए हैं। यह भ्रम दूर करना ज़रूरी है। यह ठीक से समझ लेना है, कि तुम किसी बंधन में नहीं हो। पर यह भ्रम, सद्गुरु की सहायता के बिना दूर नहीं होगा। इसका अर्थ यह नहीं है कि सद्गुरु तुममें आत्मज्ञान डालतें हैं। सद्गुरु की जिम्मेदारी इतनी ही है, कि तुम्हें बंधन से परे होने का निश्चयात्मक विश्वास दिला दे। क्योंकि अगर तुम वास्तव में बंधन में होते, तो तुम्हारे बंधन खोलने पड़ते। लहरों के शांत होने पर ही, हम सूर्य का स्पष्ट प्रतिबिंब देख पाते हैं। इसी तरह मन की तरंगों के शांत होने पर ही, हम आत्मा को देख पायेंगे। हमें आत्मा को रूप नहीं देना है— केवल मन की तरंगों को शांत करना है और आत्मा स्वतः प्रकट हो जायेगी। स्वच्छ पारदर्शी काँच पर परार्वतन नहीं होगा— एक तरफ पेन्ट करने पर ही प्रतिबिम्ब दिेखेगा। इसी तरह जब हमारे अंदर निेस्वार्थ का पेन्ट लग जायेगा, तब हम मन के दर्पण में परमात्मा को देख पायेंगे।
जब तक अहंकार शेष रहेगा, हम निे:स्वार्थी नहीं बन सकते। सद्गुरु, शिष्य को ऐसी परिस्थितियों में से गुज़ारते हैं, जिससे शिष्य अपने अहंकार को स्पष्ट रूप से देख लेता है तथा उसे काट—छाँट कर, दूर करना सीखता है। सद्गुरु की समीपता व परामर्श से शिष्य में धैर्य विकसित होता है।
वे शिष्य की धैर्य परीक्षा इस प्रकार लेते हैं कि शिष्य को क्रोध आये। जैसे शिष्य को ऐसा कोई कार्य सौंपा जाता है, जिसे वह पसंद नहीं करता— इस पर वह क्रोधित होकर अवज्ञा करता है। उस समय सद्गुरु, उसे विवेकपूर्वक विचार करने हेतु प्रेरित करेंगे। तब शिष्य अपने अंदर कठिनाइयों के पार जाने की शक्ति, महसूस करेगा। इस तरह सद्गुरु विभिन्न प्रकार की परिस्थितियाँ निर्मित करके शिष्य की कमज़ोरियाँ दूर करते हैं और उसे सशक्त बनाते हैं। शिष्य तब अपने अहंकार के पार जाने में समर्थ होता है।
जब एक शंख के अंदर का माँस निकाल दिया जाता है तभी उसमें से ध्वनि बाहर निकल सकती है। इसी तरह जब हम अहंकार हटा देते हैं, तभी हम अपनी आत्मा की ध्वनि सुन सकते हैं। पूर्ण समर्पण घटित हो जाने पर ‘मैं’ का भाव शेष नहीं रहता, केवल परमात्मा रहता है। इस अवस्था को शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
यदि एक सद्गुरु के शरण लेने के बाद भी तुममें यह चिंता व्याप्त है कि मुझे आत्मज्ञान कब होगा? तो इसका अर्थ है कि समर्पण पूर्ण नहीं है— तुम्हें सद्गुरु पर पूर्ण विश्वास नहीं है। एक बार सद्गुरु की शरण में आने पर, तुम्हारा एक मात्र कार्य उनके निर्देषों का निष्ठा से पालन करना है। और कोई विचार मन में आना ही नहीं चाहिये। शिष्य का बस इतना ही कर्तव्य है। एक सच्चा शिष्य, आत्मज्ञान की अभिलाषा भी गुरु को समर्पित कर देता है। उसका एक मात्र लक्ष्य, आज्ञा पालन है। सद्गुरु तो पूर्णता के मूर्तरूप हैं।
इसी प्रकार सद्गुरु के प्रति सच्चे शिष्य का प्रेमभाव व श्रद्धा, शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
शिष्य बनने के लिये और सच्चा गुरु पाने के लिये, भगवान से प्रार्थना करनी चाहिये। जब दिल और दिमाग में सामंजस्य हो, तभी शिष्य सद्गुरु को पहचान सकता है।