बच्चों, निःस्वार्थ जन सेवा ही आत्मान्वेषण का आरंभ है। इस अन्वेषण का अंत भी उसी में है। गरीबों और पीडतों के प्रति करुणा व दया ही ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य है। इस संसार में हमारा सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य सहप्राणियों की मदद, सेवा करना है। ईश्वर हमसे कुछ नहीं चाहते, हमसे कुछ पाना नहीं चाहते। वे सदा पूर्ण हैं। सूर्य को हमारे दीये के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर समस्त प्रपंच के रक्षक हैं। वे प्रेम व करुणा मूर्ति हैं। हम उस प्रेम व करुणा को आत्मसात कर सकें तो ही हम विकास कर पायेंगे। एक संन्यासी बिना किसी बंधन, बिना ममता के प्रेम करना और किसी प्रतिफल की इच्छा के बिना सेवा करना सीखता है। स्वार्थ की गठरी का त्याग करके उन्हें निःस्वार्थ लोक सेवा रूपी गठरी को कंधा देना चाहिये। यदि जीवमात्र के प्रति स्नेह और सब की निष्काम भाव से सेवा करने का भाव हो तो ही हम भगवद् कृपा के पात्र बनेंगे। निष्काम सेवा से अन्तःकरण शुद्ध होता है। अन्तःकरण शुद्धि बिना ध्यान करना गंदे बर्तन में दूध डालने के समान होगा। परन्तु अधिकांशतः हम इस सत्य को भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि पीडतों की सेवा करना हमारा कर्तव्य है।

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जब हम मंदिर जाते हैं, हम भगवद् नामजप करते हुए तीन बार गर्भगृह की प्रदक्षिणा करते हैं। परन्तु जब हम मंदिर के बाहर आते हैं और वहाँ ऐसा कोई जो काम करने में असमर्थ है या कोई रुग्ण, भोजन के लिए हमारे सामने हाथ पसारता है तो हम उसे दुतकार देते हैं। बच्चों, दुखियारों के प्रति करुणा ही वास्तविक ईश्वर पूजा है। कोई व्यक्ति ईश्वर की खोज में चतुर्दिक भटक रहा था। उसे कहीं भी ईश्वर के दर्शन प्राप्त नहीं हुए। थका-हारा वह एक वृक्ष के नीचे बैठा था कि उसने एक दंपत्ति को वहाँ से गुजरते देखा, दोनो बहुत प्रसन्न लग रहे थे। उनके मुख पर आनन्द का छलकन पाने पर इस साधु को यह जानने की जिज्ञासा हुई कि वे कहाँ जा रहे हैं। वह भी उनका अनुगमन करने लगा। वे एक कॉलोनी पहुँचे। वहाँ अंधिकांश कुष्टरोगी ही थे। पति-पत्नी उन रोगियों के पास जा बैठे, उन्होंने उनके व्रणों को धोकर साफ किया, उन पर दवा लगाकर पट्टी बाँधी। जो आहार वे अपने साथ लाये थे उसे सब को परोसा। मधुर आश्वासनदायी वचनों से सभी को खुश किया। यह दुश्य देखने पर उस ईश्रान्वेषी के लिये अपने भीतर प्रस्फुटित आनन्द को नियंत्रण में रखना असंभव हो गया – वह ऊँचे स्वर में घोषित करने लगा, ”मैंने ईश्वर के दर्शन कर लिये!“ यह सुनने पर लोगों ने तो सोचा कि वह पागल हो गया है। उन्होंने पूछा, ”तुम्हारे यह ईश्वर हैं कहाँ?“ वह साधु आनन्दातिरेक में बोला, ”जहाँ करुणा है, वहाँ ईश्वर हैं।“

बच्चों, वे करुणापूर्ण हृदय में ही वास करते हैं। बच्चों, दुखियों को आश्वासन देना ध्यान से भी उच्च अवस्था है। ध्यान स्वर्णसम मूल्यवान है। पर ध्यान के साथ ही हृदय में सहजीवों के प्रति करुणा भी उभर आये तो वह सोने पर सुहागा जैसा होगा। उसका मूल्य व उसका महत्व शब्दातीत हैं। अतः बच्चों को दुखी-पीडतों की सेवा के लिये तैयार होना चाहिये।

पर उनकी मदद, उनकी सेवा करने के साथ ही हमें उन्हें संस्कार भी देना चाहिये। भूखे को रोटी देने मात्र से काम नहीं होगा, उस समय पेट भर जाय तो भी कुछ ही समय बाद फिर से भूख लगेगी। अतः उन्हें अध्यात्मिक तत्त्वों से भी अवगत कराना चाहिये। जीवन का लक्ष्य क्या है व संसार के स्वभाव के विषय में उन्हें ज्ञान देना चाहिये। यदि हम ऐसा कर पायें तो वे किसी भी परिस्थिति में संतृप्त व सुखी रहना सीख लेंगे। तभी हमारी सेवा भी पूर्ण होगी।