आज सभी ऊपर, अपने से उच्च दर के लोगों व जीवन शैली को देखने में ही रुचि रखते हैं। अपने से निम्न अवस्था में जीने वाले लोगों के हाल पर कोई सोचने तक को तैयार नहीं है। अम्मा को एक कहानी याद आ गई। एक धनिक के घर पर एक बेचारी, दरिद्र महिला काम किया करती थी। वह विधवा थी। उसकी एक विकलांग बेटी थी। काम पर वह अपनी इस विकलांग बेटी को भी साथ लिये जाती थी। बेटी को कहीं बिठाकर वह अपना काम किया करती थी। उस धनिक की भी एक बेटी थी। उस लडकी को उस नौकरानी की बेटी बहुत पसन्द थी। नौकरानी की बेटी आयु में उससे कम थी। वह लडकी उस बच्ची को उठाये घूमती, उसे पुचकारती, प्यार करती, उसे मिष्ठान्न खिलाती, कहानियाँ सुनाती, ….। पर उसका यह व्यवहार उसके पिताजी को बिल्कुल पसन्द नहीं था। हर दिन वे बेटी को डाँटते थे, ”तू उसके साथ मत खेला कर। उस विकलांग, गन्दे बच्ची को तू क्यों उठाये चलती है?“ उनकी बेटी मौन ही रहती। पिताजी ने सोचा कि शायद खेलने के लिये और किसे के न होने के कारण वह उस लडकी के साथ खेलती है। ऐसा सोचकर वे अपने एक मित्र की बेटी को घर लिवा लाये। उनकी बेटी उस लडकी को देखने पर मुस्कुराई, उसने उससे कुशल मंगल पूछा और फिर उस नौकरानी के बच्ची को उठाकर पुचकारने लगी। यह देखकर पिताजी ने प्रश्न किया, ”पिताजी जिस लडकी को लाये वह क्या तुम्हें पसन्द नहीं है?“ तब उस बालिका ने उत्तर दिया, ”ऐसी बात नहीं है पिताजी, आप जिस लडकी को लाये वह मुझे पसन्द है परन्तु उसे प्यार देनेवाले बहुत हैं! पर इस लडकी को मेरे सिवा अन्य कौन प्यार देगा? उसका अपना कोई नहीं है।“

Tsunami babies

बच्चों, हमारा मनोभाव भी ऐसा हो। बच्चों, गरीबों और पीडतों को तुम पूरे दिल से प्यार दो। उनके तल पर जाकर उनका उद्धार करने का श्रम करो। ईश्वर के प्रति हमारा कर्तव्य भी यही है। बच्चे शायद प्रश्न करें कि यदि निस्स्वार्थ सेवा का इतना अधिक महत्व है तो फिर ध्यान, तप, इत्यादि की आवश्यकता ही क्या है। बच्चों, एक साधारण व्यक्ति यदि बिजली के एक खंबे के समान है तो एक तपस्वी एक ट्रान्सफार्मर के समान है। तपस से महत्त शक्ति का अर्जन हो सकता है। वह उनेक धार वाली एक नदी पर बाँध बाँधकर रोकने पर एकत्रित शक्ति के समान है। तपस से अर्जित इस शक्ति को परोपकारार्थ समर्पित करने का मनोभाव भी होना चाहिये। स्वयं जलकर संसार भर को सुगंध देते अगरबत्ती की तरह उसे भी सब कुछ समर्पित करने को तैयार होना चाहिये। वैसे विशाल हृदय में ईश्वर कृपा स्वयमेव प्रवाहित होगी।

बच्चों, हमें एक करुणापूर्ण हृदय विकसित करने का श्रम करना है। पीडतों की सेवा करने की व्याकुलता हममें जगानी है। किसी भी परिस्थिति में लोक हितार्थ सेवा करने को तत्पर एक मन हमें गढना है।

कई लोग संसार को देखने वाली हमारी दो आँखों को बन्द करके तीसरी आँख को खोलने के लिये ध्यान करते हैं। यह कभी संभव न हो पायेगा। अध्यात्म के नाम पर इस संसार से आँखें मूँदे नहीं जा सकते, संसार को अनदेखा नहीं किया जा सकता। दोनों आँखों को खुला रखते हुए ही सभी जीवजालों में स्वयं अपना ही दर्शन करना ही आत्मसाक्षात्कार है। सभी में स्वयं अपने ही दर्शन करते हुए, सभी की सेवा करने की व सभी से प्रेम करने का भाव हमें अर्जित करना है। उसी में आध्यात्मिक साधना की पूर्णता है।

अम्मा के भक्तों के लिये दिये गये उपदेशों मे से