एक बार एक व्यक्ति बहुत समय से बेरोजगार था। फिर एक दिन, उसे एक नौकरी के लिए इंटरव्यू हेतु बुलाया गया। अन्त में, उसे यह नौकरी नहीं मिली। हताश-निराश हो कर वह एकान्त-स्थान पर बैठ कर, अपनी ठुड्डी को हथेलियों पर टिकाये सोच में डूब गया। तभी किसी ने उसका कन्धा थपथपाया। पलट कर देखा तो उसने धूप का चश्मा पहने, एक बच्चे को देखा। यद्यपि वह इस एकान्त के भंग होने पर झल्लाया, परन्तु छिपा गया। उसने इतना ही पूछा कि क्या बात है? बच्चे ने उसे एक मुरझाया हुआ फूल देते हुए कहा, ‘इस सुन्दर फूल को देखो।’
अब उसे थोड़ा और क्रोध आया परन्तु इस बार भी उसने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं किया। इतना ही कहा, ‘हाँ, सुन्दर है’।
बच्चे ने कहा, ‘यह सिर्फ देखने में ही सुन्दर नहीं, इसकी सुगंध भी बहुत अच्छी है’।
अब तो इस व्यक्ति को सचमुच क्रोध आ गया। उसने सोचा, यह बच्चा पागल तो नहीं? इस बासी फूल को ले कर यह क्यों मेरे पीछे पड़ा है? उसने तंग आ कर कहा, ‘हाँ, तुम ठीक कहते हो। यह सुन्दर व सुगन्धित फूल है’।
बच्चे ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘मैं इसे आप ही के लिए लाया हूँ। ले लीजिये। परमात्मा आप पर कृपा करें!’
अब इस व्यक्ति को थोड़ा बेहतर लगा, शान्ति का अनुभव हुआ। बच्चे का धन्यवाद करके वह क्षितिज में ताकने लगा। तभी उसने धरती पर कुछ थपथपाहट होती महसूस की। मुड़ कर देखा तो वही बच्चा एक छड़ी ले कर खड़ा था। अचानक उसे बोध हुआ कि बच्चा अँधा है। उस क्षण उसे अनुभव हुआ कि उसने हाथ में जो फूल पकड़ा था, वो वास्तव में विश्व का सबसे सुन्दर और सुगन्धमय फूल था। वह बच्चे के पीछे दौड़ा और जा कर उसे गले से लगा लिया। अश्रुपात करते हुए वह बोला, ‘यह कोई सामान्य फूल नहीं। यह वो फूल है जो तुम्हारे हृदय में खिला है’। अब जिस सौन्दर्य व निर्मलता पर इस व्यक्ति की दृष्टि पड़ी थी, वो उस बच्चे की थी जो फूल में प्रतिबिम्बित हो रही थी।
वो व्यक्ति अभिभूत हो गया था। नौकरी न मिलने के कारण वो इतना निराश, हताश था कि उसके मन में जीवन का अन्त करने का विचार भी आया। और यहाँ यह बच्चा दोनों आँखें खो कर भी, न केवल खुश था अपितु दूसरों में भी खुशी बाँट रहा था।
जब हम दूसरों के साथ परमात्मा की कृपा की बात करें तो हममें योग्यता होनी चाहिए कि उनके भीतर ऐसी भावनाओं को जगा सकें। दूसरों की समस्याओं की तुलना में हमारी समस्याएं, प्रायः तुच्छ होती हैं, अतः हमें अपने वर्तमान को स्वीकारते हुए खुशी-खुशी जीवन बिताना चाहिए। वास्तव में, देखा जाए तो हमारे विचार ही तो हमारी खुशी की राह में बाधा बन कर रोड़ा अटकाते हैं, हमें स्वयं को भुला कर दूसरों के सहायक होने से रोकते हैं। प्रत्येक वस्तु पर अपनी सत्ता जमाने की इच्छा द्वारा हम इतने अभिभूत हुए रहते हैं कि – यह/वो मेरे पास होना ही चाहिए! जब तक मन ऐसी वासनाओं से भरा है तब तक खुशी क्या है – हम जान भी नहीं पाएंगे। ह्रदय में प्रेम हो तो एक अँधा व्यक्ति भी नेता हो सकता है, परन्तु जिसका हृदय ही अँधा हो चुका हो, उसे राह दिखलाना बहुत कठिन कार्य है। अहंकार का अंधत्व, मानो हमें एक तहखाने में कैद कर देता है। अज्ञान वश हम जागते हुए भी सोये हैं। इस अहंकार पर विजय पा लें तो हम स्वाभाविक ही विश्व के लिए अर्पित हो जायेंगे। जिनकी दृष्टि में अहंकार का मोतियाबिंद का रोग हो गया है, उनके लिए इस विश्व के सौन्दर्य के दर्शन करना असम्भव है।
विभिन्न परिवारों में जन्मे लोगों के विभिन्न अनुभव होते हैं किन्तु मृत्यु एक ऐसा अनुभव है जिसका अनुभव सबको होता है। फिर भी अम्मा को एक बात कहनी है – जिस व्यक्ति ने अहम् पर विजय पा ली, उसने मानो मृत्यु पर भी विजय पा ली। जब तक जगत् है तब तक ऐसा व्यक्ति अपने कर्मों के कारण स्मरणीय रहेगा। जिन्होंने अहम् को जीत लिया, जिनके हृदय प्रेम के रस से लबालब भरे हैं, उनका सम्पूर्ण जीवन विश्व-हिताय समर्पित होता है। उनके दुनियाँ से चले जाने के बाद बहुत काल तक उनके कर्मों को याद किया जायेगा। प्रत्येक कदम पर हमें इस सत्य के प्रति सजग रहना है।