प्रश्नः मानव को ईश्वर में विश्वास करने की आवश्यकता ही क्या है, उसका प्रयोजन क्या है?

अम्माः ईश्वर में विश्वास के अभाव में भी जीवन जिया जा सकता है, परन्तु यदि हम जीवन की विकट परिस्थितियों में भी बिना डगमगाये, दृढ कदमों से आगे बढना चाहते हैं तो ईश्वर का आश्रय लेना ही होगा। उनके पद्चिन्हों का अनुगमन करने के लिये तैयार होना होगा।

ईश्वर विहीन जीवन दो वकीलों के निरन्तर वाद-प्रतिवाद की तरह है। उस वाद का कोई नतीजा नहीं निकलेगा। किसी निर्णय पर पहुँचने के लिये एक न्यायाधीश का होना आवश्यक है। न्यायाधीश न हो तो केवल वाद-प्रतिवाद ही चलता रहेगा, किसी निर्णय पर नहीं पहुँचा जा सकेगा। ईश्वर की आराधना हममें ईश्वरीय गुणों को विकसित करने के लिये की जाती है। यदि इसके बिना भी कोई उन गुणों को अपने जीवन में आत्मसात कर पाता है तो फिर किसी खास विश्वास, आराधना की आवश्यकता नहीं है। विश्वास हो या न हो, ईश्वर तो अकाट्य सत्य हैं। उस सत्ता को हम माने या न माने उसमें उससे कोई परिवर्तन नहीं होता। भूमि की गुरुत्वाकर्षण शक्ति सत्य है। उसका अंगीकार न करने से वह लुप्त नहीं हो जाती, उसका अस्तित्व बना रहता है। परन्तु यदि कोई उसका निषेध करता हुआ एक ऊँचे इमारत से नीचे कूद जाये तो उसके दुष्परिणाम उसे इसमें विश्वास करने को विवश कर देंगे। इस प्रकार वास्तविकता से मुख मोडना, स्वयं अपनी आँखें बन्द करके अंधकार का दावा करने जैसा है। उस प्रपंच शक्ति, ईश्वर का अंगीकार करके तदनुरूप जीवन जीने से हम शान्ति से जीवन जी पायेंगे।