फूल जब कली होता है तो हम उसकी सुगंध एवं सौन्दर्य का आनन्द नहीं उठा सकते। और उसे खींच-खींच कर खोलने में तो कोई समझदारी नहीं है। हमें उसके सहज विकास के लिए धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी होगी, तभी हम उसके सौन्दर्य एवं सुगंध का आनन्द ले सकेंगे। यहाँ धैर्य की आवश्यकता है। प्रत्येक पत्थर में एक मूरत छिपी होती है किन्तु जब शिल्पकार अपनी छैनी से पत्थर के अनावश्यक, अनचाहे टुकड़ों को निकाल फेंकता है तभी उस मूर्ति का आकार स्पष्ट होने लगता है। यहाँ तक पहुँचने के लिए, तनिक सोचिये कि उस पत्थर को शिल्पकार के सम्मुख कितने घंटे धैर्यपूर्वक बैठना पडता है! यह उसका तप है जो इतना सुन्दर रूप धर कर हमारे सामने आ खडा होता है।

अम्मा को यहाँ किसी की सुनाई हुई एक मजेदार कथा याद आती है। एक सड़क किनारे बने अति भव्य मंदिर के बाहर एक पत्थर था। एक दिन वह बोला, ‘‘मैं भी एक पत्थर हूँ और वो भी जो मंदिर के भीतर मूर्ति बन कर बैठा है। फिर सब लोग मुझ पर पाँव रख कर चढ जाते हैं और उसकी पूजा करते हैं ऐसा क्यों?’’

यह सुन कर मंदिर की मूर्ति बोली, ‘‘तुम तो केवल आज मेरी पूजा होते हुए देखते हो। यहाँ पहुँचने के पूर्व शिल्पकार ने अपनी छैनी से मेरे शरीर पर हजारों प्रहार किये। उस समय मैंने हिले-डुले बिना ‘उफ’ तक नहीं की। इसीलिये आज असंख्य लोग यहाँ आ कर मेरी पूजा करते हैं।’’

यह उस पत्थर का धैर्य था जिसने उसे पूजनीय बना दिया।

आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के लिए सर्वोत्तम गुण है धैर्य। कुन्ती तथा गान्धारी से भला कौन परिचित नहीं है? उनकी कथा धैर्य तथा अधैर्य का उत्कृष्ट उदाहरण है। जब कुन्ती ने गान्धारी से पहले बालक को जन्म दिया तो गान्धारी खिन्न हो उठी क्योंकि वो चाहती थी कि उसका पुत्र सम्राट बने और पुत्र अभी जन्मा नहीं था। अब वह घबरा उठी, उसका धैर्य खो गया। अंतत: वह अपने पेट पर घूँसा मार कर प्रसव के लिए बाध्य करती है और बाहर आता है माँस का एक लोथडा मात्र। इसके फिर वह सौ भाग कर के सौ घटों में डाल कर रखती है और इतिहास कहता है कि इस प्रकार वह सौ पुत्रों की माँ बनी। उसमें प्रतीक्षा हेतु धैर्य ही नहीं था। और फिर यही अधैर्य से उत्पन्न सन्तान विनाश का बीज बन गई। जबकि धैर्य की सन्तान ने विजयश्री प्राप्त की।

किन्तु जब इस सुप्त बालक को जगाया जायेगा तो सरलता, भोलापन भी स्वत: जग जाएगा। हममें हर चीज से सीखने की इच्छा का सहज ही उदय हो जायेगा। फिर धैर्य तथा एकाग्रता भी आ जायेंगे। ज्यों-ज्यों हमारे भीतर का बालक बलवान होगा, त्यों-त्यों हमारे धैर्य व एकाग्रता भी बलवान होते जायेंगे। फिर अहंकार के पुत्र ‘क्षुद्र अहम्’ का कोई अस्तित्व न रहेगा। अत: मेरे बच्चों को यह नौसिखिये का भाव सदा बनाये रखना चाहिए। तब हम किसी भी वस्तु, अवसर, स्थान से सीखने में सक्षम हो जायेंगे। फिर हम जीवन में जो चाहे, पा सकते हैं। मेरे बच्चों को आजीवन यह नौसिखिये का भाव बनाये रखने का प्रयास करना होगा। जीवन में वास्तविक सफलता की प्राप्ति का यही रहस्य है।

आजकल कोई अपने दाँत निकाल कर दिखाए तो हम उसे मुस्कराहट कहते हैं, जबकि सच्ची मुस्कराहट का उद्भव हृदय से होता है। एक निष्कपट हृदय में ही सच्चा सुख अनुभव करने तथा बाँटने का सामर्थ्य होता है। इसलिए, हमें अपने भीतर विस्मृत बालहृदय को जगाना होगा, उसे बढने देना होगा। जिन बच्चों का सपना है कि वे ‘हीरो’ बनें, उन्हें अम्मा कहतीं हैं कि, यदि पहले तुम ‘ज़ीरो’ बनोगे तभी ‘हीरो’ बन सकोगे। आपने भी सुना होगा ना? अर्थात् पहले हम अपने क्षुद्र अहम् का नाश करें।

आध्यात्मिक जीवन का प्रथम सोपान है धैर्य। जिन्होंने अपने अहंकार का उन्मूलन कर, बालसुलभ अंत:करण को विकसित कर लिया है, उनका आध्यात्मिक उत्थान अवश्यम्भावी है।