आज समय बदल गया है। संध्या-समय लोग टी.वी. के सामने बैठ कर सिनेमा या हमारी सभ्यता को प्रदूषित करने वाले कार्यक्रम देखते रहते हैं। सामान्यतः, लोग एक ही दिशा में विचार करते हैं कि अधिक से अधिक धन-उपार्जन कैसे किया जाये-फिर चाहे उसके लिए घूस या अन्य अधार्मिक, दुराचारी कर्मों का सहारा क्यों न लेना पडे। इन सब को तो वे अपनी दक्षता का चिन्ह समझते हैं। और क्या कहें! पैसे के लिए अपनी माँ की हत्या करने तक में हिचकते नहीं। आज जगत की यह स्थिति है!

परन्तु शांति कहाँ है? कहीं नहीं! आजकल ड्रग्स, मदिरा, नींद की गोलियां! – हे भगवान्! कितना कुछ है, बहुत से लोग इनके बिना रह नहीं जी पाते, इनके दास बन कर वे अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं, इतना ही नहीं दूसरों को भी हानि पहुँचाने में झिझकते नहीं। जो बच्चे 3वर्ष के भी नहीं हुए, वे राजनीतिक पार्टी के लिए नारे लगाते हैं। राजनीति के नाम पर लोग एक-दूजे को नष्ट कर डालते हैं। इस वैर-विरोध की राजनीति का भाग स्कूली बच्चे भी बन जाते हैं। युवा लोग शराब, व्यभिचार के दासत्व द्वारा अपना सर्वनाश कर लेते हैं।

बुढापे में जब पिता रोगी हो शय्या पर हो तो पुत्र का कर्तव्य हो जाता है कि वह उसकी देखभाल करे, किन्तु वह चिल्ला कर कहता है “संपत्ति का बँटवारा करो और मुझे मेरा हिस्सा दो” या ऐसी अन्य मांग करता है, वह चाकू-छुरी द्वारा पिता की हत्या भी कर सकता है… थोडी सी संपत्ति के लिए पिता की हत्या?

और श्रीराम जैसे पुत्र ने हमें क्या शिक्षा दी? पिता के वचन-पालन हेतु वह राजपाट त्यागने को तैयार हो गए। यद्यपि दशरथ के लिए स्वयं को राम से अलग रखना अति दुखमय था, तब भी वह भी सत्य के मार्ग पर डटे रहे। उन्होंने अपनी पत्नी कैकेयी को उसके बलिदान के बदले में वर देने के वचन को निभाया।

युद्ध-क्षेत्र में अपना जीवन दाँव पर लगा कर कैकेयी ने दशरथ के प्राणों की रक्षा की थी। इस कारण दशरथ को अपनी पत्नी प्रिय थी, न कि अपने लावण्य अथवा प्रेम की बाह्य-अभिव्यक्ति के लिए। उस समय दिए हुए अपने वचन को राजा ने भंग नहीं किया और पुत्र राम ने भी पिता के वचनों को बिना किसी प्रतीकार के स्वीकार किया।
और सीता? जब राम वनगमन के लिए तैयार हो गए तो क्या वह क्रोधित हुई या कोई तमाशा खडा किया? सीता ने नहीं कहा कि “तुम्हें वनवास को नहीं जाना चाहिए। राज्य तुम्हारा है, येन-केन-प्रकारेण तुम्हे राज्य का अधिग्रहण कर लेना चाहिए”। पति ने वनकी ओर प्रस्थान किया तो पत्नी चुपचाप साथ हो ली, साथ ही भाई लक्ष्मण भी हो लिए।

भरत से हमें क्या शिक्षा मिलती है? उन्होंने ऐसा नहीं सोचा कि “भ्राताश्री तो गए, अब मैं राज्य करता हूं”। उन्होंने बडे भाई से वन में जाकर भेंट की, उनकी पादुकाओं को लाकर सिंहासन पर पधराया और उनका सेवक बन कर राज्य किया। ऐसी थी तब की रहनी और यही हमारे लिए भी जीवन का आदर्श है। किन्तु किसे परवाह है? कौन इन आदर्शों पर चलता है? उन लोगों ने हमें जीवन के सिद्धांतों से अवगत कराया। और हम न तो इस सबकी परवाह करते हैं, न ही इस विषय में सोचते हैं। हम केवल कमियाँ ढूंढते हैं।
क्रमशः