प्रश्न – कुछ लोग इसी मूर्ति-पूजा को लेकर हिन्दू धर्म की आलोचना करते हैं। क्या इसके पीछे कोई ठोस कारण है?
अम्मा – अम्मा नहीं जानती की वे किस उद्देश्य से मूर्ति-पूजा की आलोचना करते हैं। मूर्ति-पूजा का संप्रदाय तो किसी न किसी रूप में सभी धर्मों में विद्यमान है। ईसाई धर्म में है, इस्लाम में है, बोद्ध धर्म में है। इसाई धर्म में यही भेद है कि वे खीर व पुष्पों की भेंट नहीं चडाते, पर इनके सथान पर मोमबत्ती जलाते हैं। ब्रेड में ईसा का शरीर व मदिरा में उनके रक्त का संकल्प करते हैं। यदि हिन्दू धर्म में कपूर आरती का विधान है तो इसाई धर्म में लोबान जलात हैं। वे सूली को त्याग का प्रतीक मानते हैं। ईसा क मूर्ति के सम्मुख घुठने टेक कर प्रार्थना करते हैं। इस्लाम में मक्का पवित्र माना जाता है, उसकी ओर मुडकर ही नमाज पढा जाता है। काबा के सम्मुख बैठकर, ईश्वरीय गुणों का स्मरण करके प्रार्थना की जाती है। सभी प्रार्थना हममें विद्यमान सद्गुणों के जागरण के लिए ही हैं। क, ख, ग, घ सीखने का उद्देश्य इनके सम्मिलन से बनत पदों को पढना है। लोग A, B, C, D, इसीलिए सीखते हैं कि वे अंग्रेजी के अन्य पदों को पढ पायें। इसी प्रकार मूर्ति-पूजा व विग्रह आराधना हममें ईश्वरीय गुणों को विकसित करने के लिए ही की जाती हैं।

प्रश्न – मूर्ति से अधिक मूर्तिकार की आराधना होनी चाहिए न?
अम्मा – जब किसी पार्टी का ध्वज दिखता है तो क्या मन में उसे बनानेवाले दर्जी के प्रति श्रद्धा उठती है? क्या दर्जी की आराधना की जाती है? या फिर क्या उसे देखने पर उसे बनानेवाले जुलाहे का स्मरण होता है? या उस किसान का स्मरण होता है जिसने उसे बनाने में लगे कपास को उगाया था? पर इन को कोई भी याद नहीं करता। ध्वज को देखने पर पार्टी का स्मरण होता है। उसी प्रकार मूर्ति के दर्शन करने पर भक्त उसको गढनेवाले शिल्पी को नहीं वरन् समस्त प्रपंच के शिल्पी, ईश्वर का स्मरण करत हैं। ईश्वर ही शिल्पी में मूर्ति को गढने की प्रेरणा व शक्ति का स्रोत हैं। यदि मूर्ति को गढने में किसी शिल्पी की अनिवार्यता को हम स्वीकार करते हैं, तो प्रपंच के शिल्पी की अनिवार्यता को स्वीकारने में क्या कठिनाई है? मूर्ति पूजा से केवल शिल्पी के प्रति ही नहीं, वरन् समस्त जीवजालों के प्रति प्रेम व आदर भाव का विकास एवं हृदय की विशालता प्राप्त की जाती है। मूर्ति में उस सर्वेश्वर की उपस्थिति का संकल्प करके प्रार्थना करने पर अन्तःकरण शुद्ध होता है और इसके फलस्वरूप कालक्रम में व्यक्ति सर्वत्र ईश्वर दर्शन करके, सभी को ईश्वर रूप मानकर पूजता है। यह है मूर्ति पूजा का लक्ष्य। एक तरफ भौतिक जगत के चिन्ह हैं जो मानव को संकुचित सीमाओं में ही बंधनस्थ रखते हैं, दूसरी ओर ईश्वर स्मरण करानेवाले चिन्ह (मूर्ति; विग्रह) मानव को विशालता की ओर ले चलते हैं; सभी में ईश्वर दर्शन करने की क्षमता को विकसित करते हैं।

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