प्राचीन काल में हुए हमारे महात्मा धैर्य व करुणा के प्रतीक थे। उनमें करुणा न होती तो यह जगत् सचमुच नरक-तुल्य ही होता। उनके त्याग तथा कृपा के बल पर ही यह विश्व टिका हुआ है। तनिक ध्यान दीजिये कि आज जगत् में क्या चल रहा है। इन ऋषियों की कृपा एवं त्याग का प्रकाश ही है जो स्वार्थी लोगों द्वारा संचित पापों के अंधकार को हटाने का कार्य करता है और मानव-समुदाय में समन्वय स्थापित करता है। वस्तुतः वे ही मनुष्य-जाति के सच्चे सेवक हैं। ऐसे संतों की कृपा से उनका उपहास करने वाले लोगों तक की भी शुद्धि होती है।

प्राचीन काल में, शिष्यगण गुरु के साथ वन में स्थित आश्रमों में रहते थे। वहां वे गुरु की देख-रेख में, उनकी प्रेमपूर्वक सेवा करते हुए, अध्ययन करते। फिर अंततः, परम्परा के अनुसार प्रत्येक शिष्य गुरु को यथाशक्ति दक्षिणा देता था। उन दिनों गुरु शिष्य से यदि कुछ लेते थे तो वो प्रथम व अंतिम दक्षिणा के रूप में ही होता था। शिष्यों द्वारा दी गई इन दक्षिणाओं के बल पर ही गुरुजन आश्रम चलाते तथा अपने व शिष्य के परिवार का भी भार-वहन करते थे। यह प्रथा इसीलिये प्रचलित हुई ताकि गुरु आगामी पीढ़ियों को विद्यादान करने में संलग्न रह सकें। तथापि, महत्व शिष्य द्वारा दिए गए धन अथवा सामग्री का नहीं होता था अपितु उसके मूल में निहित भाव का होता था।

एक बार एक राजा अपने पुत्र को ले कर ऐसे ही एक गुरु के पास आया। जब राजा अपने दल-बल के साथ गुरु के आश्रम में पहुँचा तो वहां उसके स्वागत के लिए कोई न था। राजा के साथ इसके पूर्व ऐसा कभी नहीं हुआ था। वह जहाँ भी जाता, उसका औपचारिक रूप से धूमधाम से स्वागत होता। परन्तु गुरुकुल के भीतर प्रवेश करने के पश्चात् भी कोई उसके स्वागतार्थ नहीं आया था। आखिर, बहुत ढूँढने के पश्चात्, उसने गुरु को एक वृक्ष के नीचे गहन समाधि में बैठे पाया। अपने आत्मानंद में डूबे गुरु को अपने आस-पास राजा की उपस्थिति का भान तक नहीं था। यूँ भी, राजा को गुरु के समाधि से बाहर आने की प्रतीक्षा करनी थी। अतः, ज्यों-ज्यों प्रतीक्षा का समय बढ़ता जाता, उसकी खीझ बढ़ती जा रही थी। आखिर उसने गुरु को, जिसे वह अहंकारी समझ बैठा था, सबक सिखाने का फैसला किया। किन्तु वह अपने पुत्र की विद्या की राह में बाधा भी उत्पन्न नहीं करना चाहता था। अतः उसने अपनी प्रतिशोध की भावना को स्थगित कर दिया। जब गुरु ने आँखें खोलीं तो राजा को वहां खड़े पाया और बड़ी विनम्रतापूर्वक उनके आगमन का आशय जानना चाहा। परन्तु राजा अब अपने क्रोध को संयमित न कर सका और बोल उठा कि, “तुम जानते नहीं कि जब राजा का आगमन हो तो उसका उचित आदर-सत्कार सहित स्वागत किया जाना चाहिए! आश्रम के शेष लोग कहाँ हैं?”

यह सुन कर ऋषि ने उत्तर दिया, “हे राजन, कृपया क्रोधित न हों। यहाँ के ब्रह्मचारी अपने-अपने कार्यों, जैसे अध्ययन, सेवा, होम, ध्यान तथा पूजा आदि, में व्यस्त हैं। इसीलिये आपका स्वागत करने के लिए कोई उपस्थित न था। कृपया इसे असम्मान का चिन्ह न मानें।” अब राजा किंचित शान्त हुआ और अपने पुत्र को वहाँ प्रवेश दिलवाया, किन्तु भीतर अब भी क्रोध शेष था जोकि पुत्र के गुरुकुल में रहने के दौरान बना ही रहा।

राजकुमार एक उत्तम छात्र था। अपनी विनम्रता, कर्मठता तथा गुरु-भक्ति द्वारा उसने सारे आश्रम का मन मोह लिया था। सभी कलाओं में निपुण हो गए राजकुमार में भक्ति, विनम्रता तथा अविचल गुरु-भक्ति जैसे गुण भी विकसित हो गए थे।

जिस दिन आश्रम से विदा लेने का समय आया तो उसने गुरु से पूछा कि क्या वह सदा के लिए आश्रम में रह सकता है! गुरु ने हँस कर कहा, “जब पौधा बड़ा हो जाए तो उसे उसके जन्म देने वाले वृक्ष से दूर कर देना चाहिए, तब ही उस पर फल-फूल आयेंगे। शिष्य की शिक्षा पूर्ण ही तब होती है जब वह गुरु की सुरक्षा से बाहर आता है। अतः अब तुम्हें राजमहल लौट जाना चाहिए। परमात्मा का आशीर्वाद सदा तुम्हारे साथ है!”

गुरु को प्रणाम कर राजकुमार ने कहा, “मेरे आभार के प्रतीक के रूप में, मैं आपके चरणों में कुछ अर्पण करना चाहता हूँ। कृपया आज्ञा कीजिये।”

यह सुन कर गुरु ने कहा, “अब तुम राजमहल लौटो। उचित समय आने पर, मैं दक्षिणा मांग लूँगा। उस समय तुम देने में संकोच न करना।”

“संकोच? आप कह कर तो देखिये, मैं अपनी जान तक दे दूंगा! मुझे केवल इतना आशीर्वाद दीजिये कि आपके दिखाए मार्ग से मैं कभी विचलित न होऊं और जीवन में कभी धर्म के मार्ग से भटकूँ नहीं।” ऐसा कह कर राजकुमार ने गुरु को साष्टांग प्रणाम किया और विदा हुआ।

जब राजकुमार लौट कर राज्य में आया तो सभी नागरिकों की प्रसन्नता की सीमा न रही। परन्तु पुत्र को देखते ही, इतने वर्षों से गुरु के प्रति राजा के भीतर सुप्त क्रोध भड़क उठा। उसने अपने सैनिकों को तुरन्त गुरु का आश्रम फूंक डालने की आज्ञा दे दी किन्तु पुत्र को इस बात की भनक तक न लगने दी। सैनिकों ने राजा के आदेश का पालन किया। राजा को खुश करने के लिए उन्होंने गुरु की पिटाई भी कर डाली तथा उनके शिष्यों को भी खदेड़ कर वन में भगा दिया। राजा के आनन्द का ठिकाना न रहा।

शीघ्र ही, युवराज के राज्याभिषेक का समय आ पहुँचा। राजसिंहासन पर आसीन होने के पूर्व, राजकुमार ने गुरु से आशीर्वाद लेने का निर्णय किया। जब वो उस स्थान पर पहुँचा, जहाँ कभी आश्रम हुआ करता था, तो चकित रह गया। अब वहाँ कुछ बचा था तो मात्र राख के ढेर! थोड़ी देर खोजने के पश्चात्, उसे एक वृक्ष के नीचे गुरु जी ध्यानस्थ बैठे दिखाई दिए। उसने उन्हें दंडवत प्रणाम कर, अपने भावी राज्याभिषेक की सूचना दी। उसके पूछने पर कि आश्रम को क्या हुआ, गुरु ने बताया कि आश्रम दावानल में नष्ट हो गया। उन्होंने राजकुमार को आशीर्वाद दिया। तभी राजकुमार का ध्यान गुरु के सारे शरीर पर लगी चोटों की ओर गया। अब वह समझ पा रहा था कि वास्तव में क्या घटित हुआ था। आश्रम के लोगों ने उसे सारा वृत्तांत कह सुनाया। अब युवराज क्रोध से आग-बबूला हो उठा। अपने घोड़े पर सवार हो कर उसने गर्जना की कि, “जिस व्यक्ति ने यह कुकृत्य किया है, उसे जान से मार देना चाहिए – फिर वो चाहे मेरे पिता हों या स्वयं भगवान् ही क्यों न उतर आयें!”

उसे रोकने का प्रयत्न करते हुए गुरु ने कहा, “पुत्र, अपने क्रोध को संयमित करो। क्रोध के बदले प्रेम करो, आवेश के स्थान पर धैर्य करना सीखो। मैंने सोचा तुमने स्वयं पर संयम पा लिया है।”

“नहीं, गुरुदेव, मैं प्रतिशोध का प्यासा हूँ।”

अंततः गुरु ने हार मानते हुए कहा, “ठीक है, मैं तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊँगा। परन्तु इसके पूर्व कि तुम जाओ, उस वचन का स्मरण करो जो तुमने मुझे दक्षिणा के समय दिया था। आज दक्षिणा देने का समय आ गया है।”

राजकुमार घोड़े से उतर कर बोला, “कृपया कहिये, मैं आपको क्या दे सकता हूँ?”

गुरु ने धैर्यपूर्वक उत्तर दिया, “अपने पिता के कर्मों को क्षमा कर दो। मुझे इतनी ही दक्षिणा चाहिए।”

राजकुमार भौंचक्का रह गया।