अम्मा के मन में कुछ चल रहा है। प्रकृति एक विशाल बगिया है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे एवं लोग इस बगिया के विविध रंगों के पूर्ण-विकसित फ़ूल हैं। इस फुलवारी का सौन्दर्य तभी पूर्ण होता है जब ये सब एक होकर रहें, प्रेम तथा एकता की तरंगें फैलाएं। ईश्वर करें कि हम सबके मन प्रेम में भीग कर एक हो जाएँ! आइये, हम मिल-जुल कर इन विविध फ़ूलों को मुरझाने से बचाने का कार्य करें ताकि यह फुलवारी नित्य-सुन्दर बनी रहे!

करुणा को विकसित करने के लिए सर्वप्रथम महत्व की बात है कि जिन वस्तुओं को हम निर्जीव समझते हैं जैसे; पत्थर, रेत, चट्टानें तथा लकड़ी आदि – उन सबके प्रति हमारे मन में प्रेम व आदर की भावना हो। यदि हम निर्जीव वस्तुओं के प्रति प्रेम तथा सहानुभूति अनुभव कर सकते हंं तो वृक्षों, लताओं, पशु-पक्षियों तथा सागर, नदियों, पर्वतों व शेष सारी प्रकृति के प्रति भी प्रेम व करुणा जैसे भावों को विकसित करना सुगम हो जाता है। यदि हम इस पड़ाव तक पहुँच जाएँ तो सम्पूर्ण मानव-जाति तक करुणा-भाव के विकास की यात्रा स्वतः हो जाएगी।

क्या हमें कुर्सी तथा चट्टानों को धन्यवाद नहीं देना चाहिए जो हमें बैठने के लिए, विश्राम करने के लिए स्थान प्रदान करते हैं? धरती माता के प्रति आभारी नहीं होना चाहिए जो धैर्यपूर्वक हमें अपनी गोद में भागने, खेलने-कूदने के लिए आश्रय देती है? उन पक्षियों का कृतज्ञ नहीं होना चाहिए जो हमारे लिए गाते हैं, उन फ़ूलों का जो हमारे लिए खिलते हैं, उन वृक्षों का जो हमें छाया देते हैं तथा उन नदियों का जो कल-कल करती हमारे लिए बहती हैं? हर सुबह एक नव-सूर्योदय हमारा स्वागत करता है। रात को जब हम सब कुछ भुला कर सो जाते हैं तब हमारे साथ कुछ भी हो सकता है, हमारी मृत्यु भी सम्भव है। क्या हम उस अद्भुत शक्ति का धन्यवाद करते हैं जिसने हमें अगले दिन सुबह उठ कर पूर्ववत ही सब कार्य करने योग्य बनाये रखा, हमारे देह व मन को सभी प्रतिकूलताओं से बचा कर रखा? यदि हम इस प्रकार से देखें तो क्या हमें प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति के प्रति आभारी नहीं होना चाहिए? केवल करूणामय लोग ही आभार प्रकट कर सकते हैं।

मनुष्य द्वारा प्रेरित युद्ध एवं मृत्यु का कोई अन्त नहीं और न ही ऐसी त्रासदियों के पीड़ितों द्वारा बहाए गए आंसुओं का। ये सब आखिर किसलिए? विजय-पताका फ़हराने, अपनी श्रेष्ठता स्थापित करने तथा अपनी धन व प्रतिष्ठा के लोभ के लिए ही तो! मनुष्य जाति अनेकों प्रकार से अभिशप्त है और इन श्रापों से मुक्ति पाने के लिए कम से कम आगामी सौ पीढ़ियों को दीन-दुखियों के आँसू पोंछ कर उन्हें ढाढस बंधा कर उनका दुःख कम करना चाहिए। कम से कम अब तो, प्रायश्चित के तौर पर ही सही, क्या हमें आत्मनिरीक्षण नहीं करना चाहिए?

किसी सत्ता-लोलुप, स्व-केन्द्रित, स्वार्थी राजनेता को दुनियाँ पर विजय पा कर या लोगों को सता कर सुख-शान्ति की प्राप्ति नहीं हुई। इतिहास साक्षी है-उनकी मृत्यु तथा उसके पूर्व का समय भी जीते-जी नरक-तुल्य ही था। हमें इस अनमोल अवसर को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए शान्ति व करुणा के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए।

जिसके पास दौलत, अस्त्र-शस्त्र तथा ज्ञान-विज्ञान है, वह युद्ध आरम्भ कर सकता है। किन्तु कोई भी प्रेम तथा हार्दिक एकता को परास्त नहीं कर सकता। कदाचित, हमारे अंतःकरण, आँखें, कान व हाथ दूसरों के दुःख-दर्द को सचमुच समझ पाते, महसूस कर पाते! कितनी आत्महत्याओं को घटने से बचाया जा सकता था? कितने लोगों को भोजन, वस्त्र तथा आवास प्राप्त हो सकता था? कितने बच्चों को अनाथ होने से बचाया जा सकता था? कितनी ही महिलाओं को आजीविका हेतु देह के व्यापार को गले लगाने से रोका जा सकता था? कितने असह्य पीड़ा से ग्रस्त अस्वस्थ लोगों को दवा दे कर इलाज किया जा सकता था? धन-संपत्ति, मान-प्रतिष्ठा के नाम पर होने वाले कितने ही झगड़ों को टाला जा सकता था?

जानते हो, एक सच्चे साहसी नेता होने के लिए कौन से गुण वांछनीय होते हैं? वो हैं – करुणा व मैत्री। आज हम विश्व भर में दृष्टि दौडाएं तो दौलत तथा शस्त्र हाथ में हों तो कोई भी युद्ध का बिगुल बजा देगा परन्तु कोई भी करुणा, मैत्री के बल पर विजय प्राप्त नहीं कर सकता। मेरे बच्चों को यह कभी न भूले। निर्जीव वस्तुओं के साथ सम्मानपूर्वक पेश आयें तो हम प्रेम व करुणा पर आधारित एक नई भाषा का निर्माण कर सकते हैं। शनैः-शनैः हम अपने आस-पास के लोगों का आदर करने लगेंगे। इस प्रकार हम धीरे-धीरे एक नवयुग का निर्माण कर सकते हैं – एक सुख-शान्तिपूर्ण विश्व का! हम सबको ऐसे ही विश्व के निर्माण में संलग्न होना चाहिए!