हमारे देश में अनेक धर्मों के लोगों के लिए बहुत से पूजा-स्थल हैं – हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख तथा ईसाई लोग अपने-अपने पूजा-स्थलों पर जा कर प्रार्थना करते हैं। फिर भी सच्ची धार्मिकता के विकास का कोई चिन्ह नहीं दिखाई पड़ता। कोई भी धर्म आक्रामकता तथा भ्रष्टाचार की अनुमति नहीं देता। उसके बावजूद हम अधिकाधिक ऐसी घटनाओं के विषय में सुनते हैं जिनसे यह मालूम होता है कि आपराधिक भावनाएं तथा भ्रष्टाचार में भयानक दर से वृद्धि हो रही है। बच्चो, कभी तुमने सोचा है कि यह सब क्यों हो रहा है? यद्यपि लोग परमात्मा में विश्वास करते हैं फिर भी उनमें कोई आध्यात्मिक जागरूकता नहीं आयी।

इन सब पूजा-स्थलों पर कुछ लोगों का काम ही कर्मकांड व पूजा आदि करना होता है। कुछ धर्मों में उन्हें विशेष नाम, पद प्राप्त हैं। इनमें से अधिकाँश गृहस्थ होते हैं। इन्होंने पूजा के विधि-विधान का अध्ययन किया होता है और अब वे एक व्यवसाय की भाँति उसका निर्वाह करते हैं। उनके लिए यह आजीविका का एक साधन-मात्र है। उनमें कितने लोग पूजा एवं कर्मकाण्ड को अंतःकरण की शुद्धि का साधन मान कर करते होंगे? यही कारण है कि वे मंदिर तथा चर्च में आने वाले भक्तों का उचित मार्गदर्शन करने में सक्षम नहीं होते।

चर्च तथा मंदिरों की कमेटी अथवा बोर्ड के सदस्यों के पास अध्यात्म-तत्व को समझने अथवा उसके प्रचार-प्रसार का समय नहीं होता। साधारणतः, उनका ध्यान इसी पर रहता है कि किस प्रकार भव्य से भव्य उत्सव मनाये जाएँ और उनसे किस प्रकार लाभ उठाया जाए।

अधिकाँश भक्तों को अपने धर्म के मौलिक सिद्धांतों के विषय में कुछ जानकारी नहीं होती। धर्म के रीति-रिवाज़ों का वास्तविक तात्पर्य समझे बिना ही वे अपने पूर्वजों का अन्धानुरण करते जाते हैं। मंदिर में जिन विधि-विधानों को पिता को करते देखा, पुत्र भी बड़ा हो कर आँख मूंदे वही सब करता रहता है। उनके मूल में छिपे विज्ञान अथवा सिद्धान्त को समझने का प्रयास वह कभी नहीं करता।

इस विषय में एक मज़ेदार कथा सुनो। एक प्रबंधक ने अपने चार कर्मचारियों को बुला कर उन्हें अलग-अलग कार्य सौंपा। पहले को गड्ढा खोदना था, दूसरे को बीज बोना था, तीसरे को जल देना था और चौथे को उन बीजों को मिट्टी से ढक देना था। गड्ढे खोदने वाले ने अपना कार्य पूरा कर दिया किन्तु बीज बोने वाले ने अपना कार्य नहीं किया। अब तीसरे तथा चौथे ने भी अपना-अपना पानी देने व वापस गड्ढा भरने का कार्य संपन्न कर दिया। तो परिणाम क्या हुआ? सारी मेहनत बेकार गई। सभी कार्यों के पीछे जो बीज के विकास की एक भावना थी, वही निष्फल हो गई। मंदिरों एवं अन्य पूजा-स्थलों पर जाने वाले लोगों के साथ भी प्रायः कुछ ऐसा ही होता है। अध्यात्म तत्व को ठीक से समझे बिना और उसे जीवन में उतारे बिना वे अर्थहीन से कर्म करते चले जाते हैं।

यद्यपि धार्मिक लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है परन्तु समाज उनकी भक्ति से लाभान्वित नहीं हो रहा। इसके अतिरिक्त उनकी तथाकथित भक्ति एवं आध्यात्मिकता उनके जीवन में प्रतिबिम्बित नहीं होती। अम्मा ऐसा नहीं कहती कि कहीं कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता। कम से कम हम इतना तो करते हैं – है ना? हम सावधान रहें तो व्यक्ति व समाज – दोनों को किसी सीमा तक बदल सकते हैं। कम से कम अम्मा तो निस्संदेह ऐसा कर सकती हैं।

बच्चो, तुम इसे समझो कि चाहे कोई भी धर्म हो, कोई भी सम्प्रदाय हो – मौलिक सिद्धांतों की रचना तो समाज के कल्याण हेतु ही हुई है। अतः मानव-कल्याण के लाभ हेतु जो रीति-रिवाज़ बने हैं उनको लुप्त होने से बचाना ही होगा।

हमें केवल उत्सवों पर भव्य समारोहों तक ही सीमित हो कर नहीं रह जाना चाहिए। उनके मूल में निहित आध्यात्मिक आदर्शों को हमें जीना होगा। ऐसा होगा तो सर्वत्र सुख-शान्ति का वातावरण बना रहेगा।