हमारे बच्चों को कैसी सभ्यता सीखने को मिल रही है? चारों ओर सिनेमा या टी.वी. का साम्राज्य है, जिनमे अधिकतर प्रेम-संबंधों अथवा लडाई-झगडे की प्रधानता रहती है। तीन-चौथाई पत्रिकाएं भी ऐसे मसाले से भरपूर हैं। ऐसे में कंस ही तो पैदा होंगे, आने वाले समय में हरिश्चंद्र जैसे लोग मिलने कठिन होंगे।
अब भी, युवा लोग टी.वी. पर धारावाहिक या सिनेमा देख कर वैसे ही विवाह का सपना देखते हैं। कितने लोग उस नाटक में प्रदर्शित उल्लास व वैभव का जीवन जी सकते हैं? और फिर जब वैसा सम्भव नहीं होता तो भ्रम टूट जाता है और जीवन-साथी से दूरी बन जाती है।

एक बार एक बहुत छोटी उम्र की लडकी अम्मा से मिलने आई। विवाह के तुरंत पश्चात उसका तलाक हो गया था। जब कारण पूछा गया तो उसने बताया कि “मैंने एक सिनेमा देखा था। इसमें पति-पत्नी बहुत धनी होते हैं, बडा सा घर, महंगी कार और फैशनदार कपडे! शाम को दोनों समुद्र-किनारे जाते, एक क्षण भी खुशी से जुदा न होते!” इस सिनेमा को देखने के बाद यह लडकी ऐसे ही भविष्य के सपने देखने लगी।
जल्द ही विवाह हो गया परन्तु पति की छोटी-मोटी नौकरी थी, पर्याप्त धन नहीं था अतः पत्नी की इच्छानुसार घर चलाना पति के लिए असंभव था। पत्नी को चाहिए कार, नित-नई साडी और प्रतिदिन एक फिल्म… अब बेचारा पति क्या करे? उसने पत्नी को वस्तुस्थिति समझाने का प्रयास किया परन्तु पत्नी सदा निराश रहती, फिर दोनों में झगडा होता। दोनों अशांत! अतः तलाक हो गया। अब पहले से भी अधिक निराशा, वह भूतकाल की स्मृति से सदा दुखी रहती है, करे तो क्या करे?
पहले, बच्चे गुरुकुल में गुरु की निगरानी में बडे होते थे, गुरु के ही पास रहते थे। उन्हें सिखाया जाता था कि गुरु का सम्मान कैसे करें, माता-पिता के साथ व्यवहार कैसा हो, जगत में कैसे रहना चाहिए, परमात्म-तत्त्व क्या है आदि, आदि… वे केवल सीखते नहीं थे, इस सबका अभ्यास भी करते थे।
उस समय शिक्षा की नींव ही थी-गुरु की सेवा, तप, शास्त्र-अध्ययन व ब्रह्मचर्य का पालन। यही कारण है कि लोगों को हरिश्चंद्र की भांति ढालना सम्भव था। कैसे थे महान सम्राट हरिश्चंद्र? उन्होंने दर्शाया कि वह सत्य को सर्वोपरि समझते हैं, किसी भी वस्तु, पत्नी, पुत्र व धन-संपत्ति से ऊपर।
ऐसे दृष्टांत छोड गए ये पूर्व के नायक हमारे लिए! उन्होंने जो शिक्षा पाई, उसका परिणाम था कि वे ऐसे महापुरुष सिद्ध हुए। गुरुकुल में शिक्षा प्राप्त करने के बाद बच्चे गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते तो माता-पिता उनको सब उत्तरदायित्व सौंप कर वानप्रस्थ की ओर प्रस्थान करते। एक सम्राट भी अपना वस्त्र फाड कर लंगोटी बना, पहन कर सब छोड-छाड कर तप करने के लिए वन की ओर चल पडता। तब वह अपना वैभव-प्रदर्शन नहीं करता था। उनका अंतिम-लक्ष्य संन्यास होता था। उस समय बहुधा लोग सब त्याग कर सन्यास ले लेते थे। इस प्रकार की सभ्यता के कारण लोग सदाचारी थे व उनके बच्चे साहसी। वे जीवन में किसी भी परिस्थिति में, बिना डगमगाए प्रगति-पथ पर बढने के योग्य थे।
क्रमशः

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