ऋषि-मुनियों की पावन धरा भारत की विश्व को यह अनूठी वैचारिक देन है – गुरु। परन्तु हमारी पाश्चात्य देशों की नक़ल का परिणाम है कि आज बहुत से बच्चे इस विषय पर भ्रम को उत्पन्न कर रहे हैं। एक व्यक्ति ने हाल ही में अम्मा से पूछा, “गुरु के शरणागत होना तो दुर्बल मन का लक्षण है ना?”
बच्चो, आजकल अनेकों प्रकार के छाते उपलब्ध हैं। बटन से खुलने वाला छाता तो तुमने देखा ही होगा? इसी भाँति, गुरु को नमस्कार करने से हमारा मन समष्टि मन बन सकता है। ऐसी आज्ञाकारिता एवं विनम्रता को दौर्बल्य नहीं कहा जा सकता। जल-शोधक फ़िल्टर की भाँति ही गुरु भी हमारा मन शुद्ध करते हैं। हमारे अहम् का नाश हो जाता है। आज हम प्रत्येक स्थिति में अहंकार के दास बन रहे हैं। हम विवेक से काम नहीं लेते। हमारी प्रत्येक भौतिक उपलब्धि हमारे अहम् को थोड़ा और मोटा कर देती है, जबकि वास्तव में होना यह चाहिए कि सफ़लता के चलते हम अधिक विनम्र बने न कि अधिक अहंकारी। परन्तु जब हम अपने ही अहम् के दास बन जाते हैं तो विवेक सहित आगे बढ़ना असम्भवप्राय हो जाता है।

एक दिन एक घर में एक चोर घुस आया। परन्तु घर के सदस्य अभी जाग रहे थे और उन्हें चोर के भीतर आने की भनक लग गई। उन्होंने हल्ला मचा दिया और चोर नौ दो ग्यारह हो गया। शीघ्र ही एक बड़ी भीड़ उसके पीछे भाग रही थी और चिल्ला रही थी, “चोर, चोर, रुको, रुको!” परन्तु चोर बड़ा चालाक था। वह चुपके से भीड़ में से खिसक गया और उन्हीं के साथ भागता हुआ चिल्लाने लगा, “चोर, चोर, रुको, रुको!” हमारा अहम् भी ऐसा ही मक्कार, छलिया है। हर स्थिति में से यह चुपचाप खिसक जाता है। जब हमें परमात्मा अपने अहम् से निजात पाने का अवसर भी देता है तो हम उसका उपयोग अहम् को मोटा-ताज़ा करने में करते हैं। अहम् भीतर आ घुसता है। हम विनम्रता एवं सावधानी के साथ अहम् के निर्मूलन का प्रयास नहीं करते।
आज हमारे मन गमले में लगे पौधों जैसे हो गए हैं। गमले में लगे पौधे को यदि एक भी दिन पानी न दिया जाए तो यह मुरझाने लगता है। इसी भाँति, बिना अनुशासन तथा नियमों का पालन किये हम अपने मन पर संयम नहीं रख सकेंगे। जब तक हमारा मन पूर्णरूपेण संयमित न हो जाए, हमें आध्यात्मिक जीवन के विधि-निषेध का पालन करना ही चाहिए। गुरु के उपदेश, आदेशानुसार ही जीवन निर्वाह करना चाहिए। एक बार मन पूर्ण रूप से संयमित हो गया तो फिर कोई डर नहीं; हमारे मार्गदर्शन हेतु हमारे ही भीतर विवेक जागृत हो गया है।
एक बार एक व्यक्ति गुरु की खोज में निकला। उसे ऐसे गुरु की तलाश थी जो उसे उसकी वासनाओं के अनुसार जीने का परामर्श दे। किन्तु इसके लिए कोई न तैयार हुआ। जो नियम पालन करने को वे कहते, उन्हें यह नहीं कर सकता था। आखिर थक-हार कर उसने स्वयं को वन में पाया। वह परेशान हो कर बैठ गया और सोचने लगा कि, “ऐसा कोई समर्थ गुरु नहीं है जो मेरी इच्छानुसार मेरा मार्गदर्शन करे। मैं किसी का दास बनना नहीं चाहता। चलो, मैं जो कुछ भी करता हूँ क्या वो परमात्मा की करनी नहीं?” ज्यों ही उसके मन में यह विचार आया, एक ऊँट उसके सामने आ खडा हुआ और उसे देखने लगा। इस आदमी ने सोचा, “अरे, काश मैं इस ऊँट को ही अपना गुरु बना सकता तो बढ़िया होता!” ऊँट को संबोधित करते हुए वह बोला, “तुम मेरे गुरु बनोगे?” ऊँट ने सिर हिलाया।
अब उसने ऊँट को गुरु मान लिया।
अब उसने ऊँट से पूछा, “गुरु, तुम्हें घर ले चलूँ?” ऊँट ने फिर सिर हिला दिया। वह उस ऊँट को ले कर घर की ओर चल पड़ा। कुछ दिनों के बाद वह ऊँट के पास आ कर कहता है, “गुरु, मैं एक लड़की से प्रेम करता हूँ, उससे शादी कर लूँ?” ऊँट ने सिर हिला दिया।
फिर एक दिन वह बोला, “गुरुजी, मेरे बच्चे नहीं हैं, मेरे घर आँगन मे कुछ बच्चे खेलने लगे तो…?” ऊँट ने फिर सिर हिलाया। काल पा कर वह पिता बना तो पूछता है, “गुरुजी, मैं अपने मित्रों के साथ थोड़ा मदिरापान कर लूँ?” ऊँट ने सिर हिलाया।
दिन बीतते गए और उस व्यक्ति को शराबी बनते देर न लगी। उसका अपनी पत्नी के साथ झगड़ा होने लगा। एक दिन वह ऊँट के पास जा कर बोला, “मेरी पत्नी दिन-रात मुझसे झगड़ती रहती है। चाकू से उसकी हत्या कर दूँ?” ऊँट ने सिर हिला दिया और उस व्यक्ति ने चाकू मार कर पत्नी की हत्या कर डाली। पुलिस ने उसे कारागार में डाल दिया और उसने शेष जीवन वहीं बिताया।
बच्चो, यही होता है जब हम ऐसे गुरु का चयन करते हैं जो हमें मनमानी करने दे। अंततः हम स्वयं को अपने ही मन की जेल में कैद पाते हैं। परमात्मा ने हमें विवेक-शक्ति प्रदान की है जिसका सदुपयोग कर के हम अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर सकते हैं। हमें गुरु के उपदेशानुसार ही रहना चाहिए। वास्तव में गुरु शिष्य हेतु ही जीता है। केवल यह दोहराना ही पर्याप्त नहीं है, “अद्वैत ही सत्य है। ” अद्वैत ही जीवन है। यह तो एक अनुभूति है। इसे तो एक पूर्ण-विकसित फ़ूल की सहज-सुगंध की भाँति होना चाहिए। इसे सर्वदा याद रखना।

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